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प्रद्युम्न
तब मालीने बगीचेके फलपुष्प तोड़े और उन्हें लेकर वह द्वारपालकी आज्ञासे राजा श्रेणिककी सभामें गया॥३१॥ जाते ही उसने राजाको नमस्कार किया, विनयसहित फलपुष्प भेंट किये, और चरित्र हाथ जोड़कर वह इस प्रकार मनोहर वचन बोला-हे महाभाग्यशाली महाराज !आपके उपवनमें केवल ज्ञान विभूषित श्रीवर्द्धमान् भगवानका शुभागमन हुआ है। उनके प्रसादसे आप चिरकाल जीयो ! सर्वगुण सम्पन्न बनो ! और धन धान्य से मंडित होश्रो ! ॥३२-३४॥ राजा श्रोणिक वीरभगवानका समवशरण पाया जानकर तत्काल अपने सिंहासनसे उठा और जिस दिशामें श्रीभगवान् विराजमान थे, उस ओर सात पेंड आगे चलकर उसने भगवानको प्रणाम किया। सो ठीक ही है:-"परोक्षमें विनय करना यह सज्जनोंका लक्षण है" ॥३५-३६॥ पश्चात् अपने सुन्दर सिंहासन पर बैठकर राजा श्रोणिकने वनपालको अपने सोलहों प्रकारके वस्त्राभूषण उतार कर दे दिये ॥३७॥ और आनन्द भेरी बजवाकर तथा बहुतसे मनुष्योंको इकट्ठ करके वह अपने परिवारसहित जिनदेवकी वन्दनाके लिये चला ॥ ३८ ॥ समवसरणको दूरसे देखते ही उसने तत्काल हाथीसे उतरकर सम्पूर्ण राजसी ठाठको छोड़ दिया ॥ ३९ ॥ समवसरणमें जाते ही मानस्तंभके प्रभावसे उसका सर्व गर्व गलित हो गया और परम भक्तिभावसे उसके परिणाम भींज गये । उसने हाथ जोड़कर महावीर स्वामीको तीन प्रदक्षिणा दी, तथा अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर इस प्रकार स्तवन किया-॥ ४०-४१॥
___"हे प्रभो ! आप तीन जगतके स्वामी हो, सत्पुरुषों करके वंदित हो, संसाररूपी घोर समुद्रमें नावके समान हो, कामशत्र के जीतनेवाले हो, मोह सुभटको विनाश करनेवाले हो, चिंतामणिके समान चिंतित पदार्थके दाता हो, केवलज्ञानकी मूर्ति हो, आदिपुरुष हो, परमोत्तम तेजमूर्ति हो, स्वयंभव (अर्थात्-स्वयं ही इस स्वरूपको प्राप्त होनेवाले ) हो, स्वयंबुद्ध हो, स्वाभाविक आनन्दसे भरपूर हो, दुःखशोकादिके नाश करनेवाले हो, जरामरणादिसे रहित हो, सम्यक्दर्शन सम्यकज्ञान सम्यक्चारित्ररूपी
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