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चरित्र
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श्रद्धान करना है उसीको सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन कहते हैं ? सम्यक्त्व बिना न आजतक किसीकी प्रद्युम्न मुक्ति हुई और न होवेगी । ८१-८३ । शुक्लध्यानरूपी अग्नि के योगसे कर्मरूपी ईंधनका क्षय होता है । इसमें यह चिंतन करना पड़ता है कि कर्म भिन्न हैं और आत्मा भिन्न पदार्थ है, कर्म जड़ हैं। रामा चैतन्यस्वरूप है। सम्यग्दर्शन जिनागममें दो प्रकारका कहा गया है, एक निसर्गज, दूसरा धिगम | निसर्गज सम्यग्दर्शन उसे कहते हैं, जो बिना गुरु यादिके उपदेशके स्वयं होता है और अधिगम सम्यग्दर्शन उसे कहते हैं, जो उपदेशादिक सुननेसे हो जाता है । जिनेन्द्रने सम्यक्त्व तीन प्रकारका भी वर्णन किया है अर्थात् उपशमसम्यक्त्व क्षयोपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व इसप्रकार विवक्षासे सम्यक्त्व एकप्रकार, दोप्रकार, तीनप्रकार आदि भेदरूप वर्णन किया है । जो नवपदार्थ अर्थात् सप्ततत्त्व और पुण्यपापके स्वरूप को (अन्यून, यथार्थ, अधिकतारहित, विपरीततारहित) जाने उसे जिनागममें सम्यग्ज्ञान कहते हैं | ८४-८६ | सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार का है अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । मतिज्ञानावरणीके क्षयोपशमसे मतिज्ञान, इसीप्रकार अपने २ कर्मके क्षयोपशमसे श्रुत अवधि और मन:पर्ययज्ञान होते हैं और केवलज्ञानावरणीके सर्वथा क्षयसे अथवा चार घातिया कर्मके नाश करनेसे केवलज्ञान होता है । सम्यक्चारित्र जिनेन्द्र ने तेरह प्रकारका वर्णन किया है, जिसका ग्रहण प्राणियों को अवश्य करना चाहिये ( वह इस प्रकार है ५ समिति, ३ गुप्ति, ५ महाव्रत ) इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन किया गया है, उसीका समुदाय ही मोक्षका मार्ग है । तत्त्वार्थ का जो श्रद्वान अर्थात् रुचि वा प्रतीति उसी को सम्यग्दर्शन कहते हैं । ८७-८६ | भव्यजीवों को सदाकाल ऐसा चिंतवन करना चाहिये कि ये शरीर भिन्न है और मेरा आत्मा चैतन्यघन इससे भिन्न है । यह ग्रात्मा कर्मके वशसे जैसे शरीर को प्राप्त होता है, उसी शरीर के आकार का हो जाता है । भावार्थ - आत्मा लोकाकाशके समान असं
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