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अद्यम्ना
चरित्र
कैसे कारणों से बन्ध होता है और किस उपायसे कर्म बन्धनको तोड़कर वे अत्यन्त दुर्लभ मोक्षको प्राप्त करते हैं ? कृपाकर इस विषय को समझाइये ७१-७२।।
तब श्री महेन्द्रसूरि मुनिराज बोले, हे भूपाल ! मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर संक्षेपमें वर्णन करता हूँ, सुनोः-जिनेन्द्र भगवानने बन्धके मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कारण बतलाये हैं-तत्वोंका तथा पदार्थों का अश्रद्धान करना सो मिथ्यात्वनामा कर्मके योगसे निश्चय करके बन्धका कारण है । उस मिथ्यात्वके जिनेन्द्र भगवानने दो भेद कहे हैं एक निसर्गज अर्थात् अगृहीतमिथ्यात्व और दूसरा गृहीत-मिथ्यात्व । गृहीत-मिथ्यात्वके एकान्तमिथ्यात्व, विपरीतमिथ्यात्व, संशयमिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व, और अज्ञानमिथ्यात्व ऐसे पांच भेद हैं। सो मिथ्यात्वनामा कर्मके योगसे पापाश्रवका कारण होने से तथा आठों ही प्रकारके कर्मों को उत्पन्न करनेका कारण होनेसे जिनेन्द्र भगवानने इनको बंधस्वरूप कहा है । हे राजन् ! इन मिथ्यात्वोंके फलस्वरूप इस समय तीनसौ तरेसठ प्रकारके मत फैले हुए हैं ।७३-७६। हे नराधिप ! षटकायके जीवों की हिंसा का त्याग नहीं करना
और पांच इन्द्रिय तथा मनको वशमें नहीं करना सो बारह प्रकारकी अविरति है। स्त्रीकथा, राजकथा, भोजनकथा और देशकथा ये ४ विकथा और क्रोध मान माया लोभ ये ४ कषाय तथा ५ इन्द्रियें निद्रा और राग इस तरह १५ प्रमाद हैं। अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, और संज्वलनके भेदसे क्रोध, मान, माया, लोभरूप १६ भेद तथा नौ हास्य, रति, अरति आदि कषाय, सब मिलकर २५ कषाय हैं । चार मनोयोग, चार वाग्योग, पांच काययोग, एक अाहारक काययोग
और एक आहारक मिश्रयोग ऐसे १५ योग हैं। ये सब ही बंध के कारण होनेसे बंधस्वरूप हैं।८०। इस जीवको जो कर्म बंधन से छुड़ाता है ऐसा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रका समुदाय ही एक मोनका कारण है। जीव अजीव प्रास्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सप्ततत्वों का जो
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