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धारिणी नामकी सेठानी थी, जो रूपवतो, शुभलक्षणोंकी धारिका, सुन्दरता रूपी जलकी वापिका, उज्वल उच्चकुलसे उत्पन्न हुई, गुणोंके भार वा विनयसे नम्र रहनेवाली, पतिके चित्तको कामरूपी धनुष चरित्र के तौरसे भेदनेवाली, देवशास्त्रगुरुका आदर करनेवाली सप्तशील और सम्यक्त्वकी धारनेवाली, पतिव्रता उत्तम आचरण वाली और दोनों कुलोंको विशुद्ध करनेवाली थी। समुद्रदत्त सेठने धारिणी सेठानी के साथ अनेक प्रकारकी क्रीड़ा करते हुए और सुखसागरमें मग्न रहते हुए कितना समय व्यतीत कर दिया यह नहीं जाना गया।३३-३६।
कुछ समय व्यतीत होने पर पुत्रकी इच्छा करनेवाले उन स्त्रीपुरुषोंके पूर्व में कहे हुए अग्निभूति वायुभूतिके जीवोंने जो पहले स्वर्गमें इन्द्र उपेन्द्र हुए थे, पुण्यके प्रभावसे जन्म धारण किया। स्वजनरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य के समान उन पुत्रोंके जन्मके समय समुद्रदत्त सेठने खुशीमें बड़ा भारी उत्सव कराया याचकोंको जी खोलकर दान दिया स्वजनोंका आदर सम्मान किया जिनमंदिरोंमें पूजा विधान कराया और नगरभरमें अभयदान दिलवाया अर्थात् यथाशक्ति पशु पक्षी मनुष्यादिक जो बंधनमें पड़े हुए थे उन्हे छुड़वा दिये गये । इस प्रकार छह दिन तक समुद्रदत्त सेठने अपनी शक्तिके अनुसार महान् उत्सव किया ।३७-४०। सातवें दिन अपने कुटुम्बी वा इतर सत्पुरुषोंको आमन्त्रण देकर बुलवाया और विधिपूर्वक अपने दोनों पुत्रोंका नामकरण कराया। जो पहले जन्मा उसका नाम मणिभद्र और जो पीछे जन्मा उसका नाम पूर्णभद्र रक्खा गया। जिसप्रकार शुक्लपक्षमें चन्द्रमा प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त होता है, उसीप्रकार चन्द्रके समान सुन्दर मुखवाले वे दोनों श्रेोष्ठिपुत्र बड़े होने लगे ।४१-४२। जब लड़कोंकी अवस्था पांच वर्षकी हुई, तब समुद्रदत्त सेठने उन्हें जिन मन्दिरमें ले जाकर विधि पूर्वक देवशास्त्रगुरुकी भक्तिभावसे पूजा की। पश्चात् जैन उपाध्यायके पास अपने दोनों पुत्रोंको विद्याभ्यास कराने के लिये विठा दिया। सो पूर्वपुण्यके प्रभावसे उन दोनोंने श्रीजिनमन्दिरकी पाठशालामें
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