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प्रद्युम्न
चरित्र
जिनधर्म ग्रहण करना पड़ा था, परन्तु अब अपना कार्य तो सिद्ध हो ही गया इसलिये वेदशास्त्र से बिरुद्ध धर्मको पालन करने की जरूरत नहीं है, जिससे प्राणियों की नीचगति होती है । ५०६-५०६ । ११० अग्निभूति और वायुभूति चुपचाप अपने माता पिता की बात सुनकर उसे पी गये, कुछ भी जवाब नहीं दिया। उन्होंने समझ लिया कि, हमारे माता पिता की रुचि अभी तक कुधर्म में ही लगी हुई है । ५१०। वे सचिन्त हो विचारने लगे, अब क्या करें ? किससे कहें ? हमारे मातापिताका चित्त पाप में लिप्त हो रहा है । इसकारण उनका चित्त कुछ समय व्याकुल रहा, परन्तु पीछे उन्होंने सन्तोष लाभ करके गृहस्थों के बारह प्रकार के व्रत और सम्यक्त्व भली भांति पालन किया, मुनि चर्जिका श्रावक श्राविकारूप चार प्रकार के संघको नवधा भक्तिसे दान दिया, जिन मन्दिरों में विधिपूर्वक अष्टद्रव्यसे जिनपूजन की और अन्त में समाधिमरण करके स्वर्गलोक को गमन किया । ५११-१३।
अग्निभूति वायुभूति के जीव स्वर्ग में उपपाद शय्यापर उत्पन्न हुए। वहां देवांगनाओं के गीत, नृत्यादि सुनकर वे शय्या पर से एकदम जाग उठे और विचारने लगे, हम कहां आ गये ? स्वर्ग की विभूतिको देखकर चकित होकर वे कहने लगे । यह अद्भुत जयजयकार का शब्द काहे का हैं ? इतने में ही उन्हें अवधिज्ञानसे प्रगट हुआ कि, हम सौधर्म नामके पहले स्वर्ग में इन्द्र उपेन्द्र हुए हैं । यह जिनधर्म के धारण करनेका वा विशेष पुण्य का ही महात्म्य है, जिसमें हमें शैय्या, विमानादि अनेक प्रकार की भोगोपभोगकी सामग्री प्राप्त हुई है । भाग्यहीन प्राणियों को स्वगोंके सुख नहीं मिल सकते ।५१४-५१७। इसप्रकार विचारकर देवगतिमें उन्होंने प्रसन्न चित्तसे जैनधर्मको पालन किया । और चित्त में निर्मल सम्यग्दर्शनको निरन्तर धारण किया । अपने पूर्वभवकी वार्ताको स्मरण कर उन्होंने जिनधर्म में दृढ़ श्रद्धान ठानकर पाँच पल्य पर्यन्त वहांके ऐसे सुख भोगे, जिन्हें कोई उपमा नहीं दी जा सकती । ५१८ | धर्मके प्रभावसे मनोवांछित उपमा रहित पदार्थ, सुन्दर रूप, गम्भीरबुद्धि, वचन -
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