________________
तथा कन्दमूलादि नहीं खाना चाहिये । सब प्रकारके फूल तथा और भी जो जैनशासनमें दूषित बतलाये हैं ऐसे निद्य तथा पाप करनेवाले धुने धान्य और पुष्पित वस्तुएँ भी त्याग करना चाहिये । बुद्धिमा- | चरित्र नोंको सदाकाल परोपकार करना चाहिये और पर निंदारूपी पातकको मन वचन काय से त्याग देना चाहिये । इसी प्रकार जिनेन्द्रदेवने उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिंचन ब्रह्मचर्य ये दश धर्म वर्णन किये हैं जो भव्य जीवोंको संसार समुद्रसे पार कर देते हैं। ऐसा जानकर द्विजपुत्रों ! तुम सर्व पापके नाश करने वाले धर्मको संचय करो यही सार वस्तु है ।६२-६६।
मुनिराज के मुखारविंदसे धर्मका स्वरूप सुनकर अग्निभूति और वायुभूति दोनों द्विजपुत्रों ने अपने माता पिताके सहित भक्तिपूर्वक गृहस्थधर्म धारण किया ।५००। और जिनभाषित सम्यक्त्व को पाके वे द्विजपुत्र अपने मातापितासहित चित्तमें अतीव प्रसन्न हुए। सो ठीक ही है “धर्मरूपी रत्न को पाकर किसका चित्त सन्तुष्ट नहीं होता है।" जो अमृतपान करते हैं उन्हें सन्तोष होता ही है ।५०१-५०२। द्विजपुत्र जिनकी कई मनुष्य तो प्रशंसा करते थे और कई निंदा करते थे बन्धुओं सहित श्रीसात्विकि मुनिराज को नमस्कार करके अपने घर चले आये ।५०३। वे जिनेन्द्र के चरणकमल की रजसे अपना मस्तक पवित्र करके और जिनधर्म में अपने चित्तको लवलीन करके सुख से तिष्ठे।५०३-५०४। जिनचैत्यालयों में जिन धर्मके महान उत्सव कराने वा गुरुवन्दना में ये दोनों द्विजपुत्र नगरवासी जनों में अग्रसर गिने जाने लगे।५०६। इसप्रकार ये तो धर्मध्यानसे अपने दिन व्यतीत करने लगे परन्तु मिथ्यात्व परिणतिके प्रभाव से कुछ दिनोंमें उनके माता पिताोंने अपना चित्त जिनधर्म से पराङ्मुख कर लिया।
एक दिन उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर कहा, बेटा ! अब तुन्हें वेदमार्गसे विपरीत जिनधर्म के व्रतादिक पालन करना ठीक नहीं है । उस समय ऐसा ही मौका श्रान पड़ा था, जिससे
Jain Educatinternational RE
For Privale & Personal Use Only
www.inglibrary.org