________________
प्रद्यम्न
रिक
मेरे वास्ते इनके प्राण हरने उचित नहीं हैं। कारण समभाव से उपसर्ग सहना, यह मुनियोंका कर्तव्य है। यतिधर्म जिनेन्द्रदेवने इसीप्रकार वर्णनकिया है। उपसर्ग जीतना यही तप है।६२-६७। उपसर्ग सहने से कर्मरूपी शत्रुओंका विनाश होता है। जबतक उपसर्ग न सहेंगे, तब तक पापका नाश किसप्रकार हो सकता है ? ६८। तब यक्ष बोला, हे दयासिन्धु ! आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि, आप मुझे अपराधीको दण्ड देनेसे न रोकें । आप अपने धर्म कर्म कीजिये, इस ओर ध्यान न दीजिये, मैं अभी इन मुनिहिंसक दुराचारियोंको यमराजके यहां भेज देता हूँ। जब मुनिराजने देखा कि, यह द्विजपुत्रोंको जीता छोड़ता ही नहीं है तब बोलेः-यक्षराज! एक बात और सुनो। इनको जीवनदान देनेका एक दूसरा कारण है कि, ये दोनों श्रीनेमिनाथ स्वामी वाईसवें तीर्थंकरके वंशमें श्रीकृष्णनारायणके पुत्र होवेंगे और उसी भवसे कमों को नाशकर मोक्षको प्राप्त होंगे।६६-७२। इसकारण इनका विनाश करना उचित नहीं है । तब यक्षेन्द्रने मारनेके संकल्पको छोड़कर मुनिराजको नमस्कार किया और राजा तथा सनस्त मनुष्योंके सन्मुख अग्निभूति वायुभूति द्विजपुत्रोंको कीलित दशासे मुक्त कर दिया। इसप्रकार जैनधर्मकी प्रभावना करके यक्षराज वहां से लोप हो गया। राजादिकों को यह चमत्कार देखकर जैनधर्ममें बड़ी श्रद्धा हो गई और वे अतीव प्रफुल्लित हुए। सो ठीक है "धर्मको प्रभावना देखकर कौन प्रसन्न नहीं होता है ?" ।७३-७५।।
बन्धनसे छूटते ही द्विजपुत्र अग्निभूति वायुभूति ने श्रीसात्विकि मुनिराजके साम्हने खड़े होकर नमस्कार करके बड़े विनय से कहा-“हे कृपासिन्धु ! हमने घोर अन्याय किया, आप क्षमा करो। आपके समान साधुओंको हम सरीखे अज्ञानी बालकोंपर कोप नहीं करना चाहिये।” तव मुनि- ।। राजने उत्तर दिया “पुत्रों मैंने प्रथमहीसे क्षमा धारण कर रक्खी है, सदाकाल जीवमात्रसे मेरी क्षमा है अब कहो कौनसी नवीन क्षमा में धारण करूँ, संसार में यह जीव अपने कर्मानुसार सुख दुःख पाता
4
।
Jain Educa
interational
For Private & Personal Use Only
www.rnelibrary.org