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राजको ध्यान मुद्रा समाप्त हुई उन्होंने अपने नेत्र उघाड़े तो देखा कि, द्विजपुत्र काठके समान कीलित । खड़े हुये हैं। मुनिवरने इस बातपर मात्र भी रोष न किया कि ये तो मेरेपर ही खड्ग प्रहार करने चरित्र वाले थे। किन्तु उन्होंने दयाभावसे अपने मुखारविंदसे ये वचन कहे कि-जिस दयालु यक्षराजने यह चमत्कार किया है, वह अपने रूपको प्रगट करे और इन द्विजपुत्रोंको इस बंधनसे छोड़ देवे ।५४-५६।
सात्विकि मुनिराजकी आज्ञानुसार उनके पुण्योदयसे तत्काल ही यक्षराज हाथमें दण्ड लेकर प्रगट हुआ और प्रणाम करके बो ना, हे महाराज ! आप इस विषयमें रंचमात्र चिंता न करें, सन्तोषसे विराजे रहें । यदि मैं बिना कारण किसी का वध करूं तो आपका मना करना ठीक है ।५७-५८। कल रात्रिको जब ये दोनों दुष्ट ब्राह्मण आपपर तलवार चलानेवाले थे। उसी समय इनको नष्ट कर डालने का मेरा विचार था, परन्तु आपने ही इनका प्राणान्त किया है इसप्रकार वृथा लोकनिंदा न फैल जावे, ऐसा जानकर मैंने इन्हें ज्योंके त्यों कील दिया, जिससे कि सवेरेके समय सब लोग इनकी दुष्टताका फल प्रत्यक्ष देख लेखें । हे नाथ ! अब मैं सबके सामने इन मदोन्मत्त द्विजपुत्रोंको मारके विछा देता हूँ। इतना कहकर यक्षराज दण्ड लेकर पहले राजाको मारनेको आगे बढ़ा और वोला, अरे दुष्ट राजन् ! क्या तेरे राज्यमें ऐसे २ हत्यारे अनाड़ी विप्र रहते हैं जिनके हृदयमें रंचमात्र दया नहीं है और जो मुनीश्वरोंको भी मारनेसे नहीं डरते हैं ? ॥५६-६१। तब राजा बहुत घबराया और (हाथ जोड़कर) बोला-यक्षराज ! मुझे इस बातकी बिलकुल खबर नहीं थी कि, ये दुष्टात्मा मुनिराजके वध करनेको उतारू हुए हैं । यदि मैं यह वृत्तांत जानता होता और इन्हें इस घोर वज्रपाप कर्म से नहीं रोकता, तो में अपराधी ठहरता। तब सात्विकि मुनिराजने यक्षसे कहाः-राजाको इसघातकी खबर तक नहीं थी। इसमें इनका कोई अपराध नहीं है । तब मुनिराजके वचनोंको सुनकर देव राजाको छोड़कर दण्ड हाथ में लेकर तथा कुपित होकर दोनों द्विजपुत्रों को मारनेके लिये झपटा। तब मुनि बोले, यक्षेन्द्र ! तुम्हें
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