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उसका फल चख !।१७। बड़े भाई अग्निभूतिने अपने छोटे भाई वायुभूतिसे कहा-भाई ! क्या देखता है, प्रद्युम्न तू झपाटेसे अपनी तलवार चलाकर इसके प्राण ले ले, जिससे अपना चित्त शान्त हो जाय । तब वायु- चार १०३ भूतिने जवाब दिया-“भाईसाहब ! मेरी बात सुनो, ये मुनि ध्यान कर रहे हैं। मैं इन्हें हनूंगा तो
मुझे मुनिघातका वज्रपाप लगेगा।" नब बड़ा भाई बोला “मैं भी प्रथम तलवार नहीं चला सकता जिससे मुनिघातका बज्रपापका भागी मुझे होना पड़े।' इसप्रकार शास्त्रके बलसे दोनोंमें बहुत समय तक विवाद होता रहा। सो ठीक ही है "मूर्ख हितेषी मित्रकी अपेक्षा विद्वान शत्रु भी अच्छा होता है।" अन्तमें दोनों क्रोधी विषोंने यही विचार किया कि-अपन दोनों जने एकसाथ मुनिपर अपनी २ तलवार चलावें । इस विचारसे वे आगे बढ़े और मुनिको दोनों तरफ खड़े हो गये । दोनोंने दुर्बुद्धिसे अपने नेत्र लाल कर लिये, भकुटी ( भों हैं ) चढ़ा ली और यमराज का रूप धारणकर दुष्टोंने मुनिके प्राण लेनेके लिये उनके मस्तकपर तलवार सहित हाथ उठाये। उसी समय आकाशसे एक यक्षाधीश क्षेत्रपाल क्रीड़ा करता हुआ जा रहा था । विप्रपुत्र मुनिवध करनेको उतारू हो रहे हैं, यह देखकर उस का हृदय करुणासे भींज गया। वह विचारने लगा कि, विचारे मुनिराज तो ध्यानमें तिष्ठे हुए हैं। इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है परन्तु ये दुष्ट, पापी, नीच इन्हें मारनेको क्यों तैयार खड़े हैं ? जो योगीश्वर शत्रु मित्रको समान दृष्टि से देखते हैं और जो प्राणीमात्रके हितकर्ता हैं, वे ही क्या अाज इन पापी हत्यारों द्वारा हते जावें? यदि मैं ऐसे महा मुनिकी रक्षा न करू, तो मेरा इस क्षेत्रका रक्षक देवता होना वृथा ही है। अभी मैं इन पापियोंके सैकड़ों टुकड़े किये डालता हूँ। ऐसा विचारकर वह यक्षराज उनके निकट आया।४१८-३०। उन्हें देखते ही उसके चित्तमें एक विचार उत्पन्न हुआ कि, अभी इन पुत्रोंका वध करना भी ठीक नहीं है। कारण इनको कतल हुए सुनकर जगतमें अपकीर्ति फैल जायगी। क्योंकि प्रातःकाल होते ही कई मनुष्य यहां आयेंगे और इन दोनों को मरे हुए
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