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प्रद्यम्न
तू बैठ जा और मरण. पर्यन्त सन्यास धारण कर आत्मस्वरूप के चिन्तवन में लवलीन होजा । वहां के ही . द्विजपुत्र आवेंगे और प्रथम ही बादमें जीतने वाले तुम्हें देखकर ब्याग बबूला हो जायगे और वध १०२ करने को तुझपर ही तलवार चलावेंगे। तब वही क्षेत्रका रक्षक देव अपनी सामर्थ्य से उन दोनों को ज्यों के त्यों कील देगा अर्थात् काठके समान हलन चलन क्रियासे रहित कर देगा । ५-७| ऐसा करने से निःसंदेह मुनिसंघकी रक्षा होगी गुरुके मुखारविन्द से इन वचनों को सुनकर सात्विकि मुनि बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने बारम्बार गुरुके चरणों में नमस्कार किया और उनसे क्षमा मांगी। इसी प्रकार ...उसने समस्त मुनिसंघ से भक्तिपूर्वक क्षमा याचना की और निःशल्य होकर उनपर क्षमा की । पश्चात् उसने समस्त संघसे कहा- यदि मेरी रात्रि कुशलता से व्यतीत जावेगी, तो मैं सबेरे ही कर प मिलूंगा । ऐसा कहकर सात्विक मुनि वहांसे खाना हो गये । ८-१०।
श्री द्रवद्धनमुनिराज की आज्ञानुसार सात्विक मुनि बहुत शीघ्र उस स्थान पर पहुँच गये, जहां द्विजपुत्रोंसे विवाद हुआ था । सन्ध्याका समय था, इसकारण प्रथम उन्होंने संध्यावन्दन किया । पश्चात् क्षेत्रपालकी आराधनापूर्वक उन्होंने दो पैंड जमीन ले ली और उसमें वे सावधानचित्त होकर सन्यास धारण कर ध्यानमें तिष्ठ गये । १११२ । जब इस प्रकार समता के धारक और इन्द्रियों के दमन करनेवाले योगीश्वर ध्यानमें लवलीन हो रहे थे, उसीसमय दुष्टात्मा अग्निभूति और वायुभूति द्विजपुत्र नंगी तलवार लिये हुये वहां आ पहुँचे उन दोनोंकी दृष्टि सात्विक मुनिपर पड़ी। उन्हें बैठा देखकर दुष्ट द्विजोंका चित्त हरा भरा हो गया । वे विचारने लगे, ठीक है अब तो अपना मनोरथ सफल हो गया। कारण अपनेको सहज में ही पहले वहीमानखंडन करनेवाला शत्रु मिल गया। ऐसा सोचकर वे दोनों मुनिके समीप आये और उन्हें ध्यानमें निश्चल अङ्ग देखकर बोले । १३-१६ । रे रे दुष्ट ! महापापी विद्वानों की सभा में तूने वादविवाद में न्याय किया । और हमारा मान गलित किया। उस अपराधको तू याद कर और अव
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