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बायें हाथमें ले ली और बाई बाजूके कानके ऊपर चोटी बांध ली तथा क्रोधसे अपने नेत्र लाल करके प्रद्युम्न वे नगरके बाहर निकल आये और जहाँ सात्विकी मुनिराजसे वादविवाद हुआ था, उसी दिशाकी ओर रवाने हो गये ।३६३-३६५॥
उधर मात्विकि मुनिराजने द्विजपुत्रोंसे शास्त्रार्थ करनेके बाद क्या किया, सो वर्णन किया जाता है-जब द्विजपुत्रोंको मुनिवरने वादमें परास्त कर दिया, तब वे अपने गुरु नन्दिवर्धन मुनींद्रके पास आये । उन्होंने उनके चरणकमलो में नमस्कार किया और बहुत विनयसे कहा, भगवन् मेरी प्रार्थना पर ध्यान दीजिये । वाद विवाद न करनेका नियम होते सन्ते भी मैंने विप्रपुत्रोंसे शास्त्रार्थ किया, इसका कृपाकर यथोचित प्रायश्चित्त बताइये ।।६-९८। तब नन्दिवर्धन मुनिराजने अपना मस्तक हिलाया और कहा हे वत्स तुमने वादविवाद किया, यह काम ठीक नहीं किया। कारण इससे मुनियोंका संघ नाशको प्राप्त होगा क्योंकि वे दुष्ट द्विजपुत्र जिनका मान खण्डन हो गया है जिन्हें माता पिताने भी तिरस्कृत किया है, और जिनकी सब इच्छायें नष्ट हो गई हैं, वे कुपित होकर आज रात्रि को अपने २ हाथमें तलवार लेकर वनमें आवेंगे और सर्व मुनियों का वध करेंगे।९६-४०१। गुरुके वचनोंको सुनते ही सात्विकि मुनिका चित्त कम्पायमान हो गया और मुनियोंकी होनहार मृत्युको सुनकर उनका चित्त अत्यन्त संक्लेशित हुआ।४०२। उन्होंने श्रीनन्दिवर्द्धन मुनिनायक से निवेदन किया कि, हे कृपासिंधु मेरी यह प्रार्थना है कि, जिमप्रकार मुनिसंघकी रक्षा होती हो वही उपाय कृपाकर मुझे प्रगट करो। यदि मेरे अपराधसे ही मुनियोंका वध होता हो तो मेरे जीवनको धिक्कार है। और मरने पर भी कौन गति होगी, नहीं कहा जा सकता ।३.४। तब गुरुने कहा, वत्स ! मैं एक उपाय बताता हूँ। वह यह है कि, जिस स्थान में द्विजपुत्रोंसे तूने वाद विवाद किया हो, वहीं तू रात्रिके पड़ते हो पहुँच जा और उस स्थानके रक्षक क्षेत्रपालकी आराधना करके उससे दो पेंड जमीन ले ले। उसीमें
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