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प्रद्युम्न
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रोने लगे कि बेटा ! तू किसके बहकाने में या गया था जो आज पर्यन्त मौन माधके गूंगा बन रहा था ? ।७२ ७४ । तब वह सबसे क्षमा मांगकर बोला कि मैंने मोहकर्मको उत्पन्न करनेवाली अनेक चेष्टायें की थीं जिससे मरके मैं अपने पुत्रका ही पुत्र हुआ हूँ । जाति स्मरण होनेसे मैंने यह बात जानी तब लज्जावश मैंने यह समझके चुपकी माध ली कि मैं अपने पूर्वभवके पुत्र वा पुत्रवधू को अब पिता वा माता नहीं कह सकता । ३७५ । अब मैं संसारका विनाश करनेवाली जिनदीत्ता स्वीकार करूंगा। कारण जब तक प्राणी संसार के जाल में फंसा रहता है तबतक अनेक प्रकार के सुख दुःख उच्च नीचपन को प्राप्त होता है । ३७६ | यह जीव अकेला ही अपने कमाये हुए पुण्य पापके अनुसार सब दुःख पाता
लाही जन्म लेता है और अकेला ही मरणको प्राप्त होता है ऐसा जानकर संसारका कारण मोह कदापि नहीं करना चाहिये । इसलिये मैं अपने आत्मकल्याण के लिये वीतराग दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करूगा । ३७७-७८ । ऐसा कहके उम विप्र पुत्रने अपने कुटुम्बियोंसे क्षमा मांगी और उसने भी सब पर क्षमा की और वहांसे वनको रवाना होगया ।
वनमें जाके मूक ब्राह्मणपुत्रने मात्विक मुनिराजके चरण कमलमें नमस्कार किया और उस बुद्धिशालीने गुरुकी प्रज्ञासे बड़ी रुचिके माथ व्रत ग्रहण किये | ३७६ | जब सभा में बैठे हुए सभ्य पुरुषोंने ब्राह्मणको जिनदीक्षा लेते देखा तब कई भव्य जी को सम्यक्त्व हो गया, कई सज्जनोंने गाईस्थ्य धर्म अङ्गीकार किया । भावार्थ :- कई सत्पुरुषोंने महाव्रत धारण किया और कई धर्मानुरागियों ने बारह प्रकारका गृहस्थियोंका व्रत स्वीकार किया । कई भाइयोंने जिनपूजनकी प्रतिज्ञा और कई महानुभावोंने ब्रह्मचर्य ग्रहण किया । ८०-८१ । इसप्रकार इधर तो अनेक सज्जनोंने धर्म ग्रहण किया
उधर जो कौतुक श्रावक लोग मुनिके वाक्योंको सुनकर प्रवर विप्रके घर गये थे, वे शीघ्र ही उसके घरसे चमड़ेके भस्त्रे (भाथड़ी) ले आये और उन्हें सब मनुष्यों को दिखाये, जिनको देखकर मुनिवाक्योंमें
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