SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रद्यम्न ६६ Jain Educa मूसलधार जलवृष्टि होती रही । पानीके मारे आजीविकाके साधन के लिये बाहर न निकलने के कारणसे प्राणीमात्र भूख से व्याकुल हो रहे थे । श्यालका जोड़ा भी भूखसे अतीव दुःखी हो रहा था । जब वें दिन पानी कम हुआ, तब दोनों श्याल वहांसे निकले। उन्होंने खेत में पड़ी हुई और पानी में भी हुई कमी देखी। कड़ी भूख के मारे वे उसे खा गये, जिससे उनके उदरमें शूलकी बड़ी भारी वेदना उठी और अन्त में चारों दिशाओं में पैर तानके वे मरणको प्राप्त हो गये । और उन्हीं दोनों के जीव सोमसर्मा विप्रके यहां (तुम दोनों ) पुत्ररूप उत्पन्न हुए हो । २३ - ३३ । इसप्रकार पूर्वभव के श्याल इस भवमें द्विज हुए हैं, इसीलिये कहते हैं कि, संसारमें न किसी मनुष्यकी उत्तम जाति है और न किसी की नीच । ये प्राणी अपना भोगा हुआ सुखदुःख भी तो जानते नहीं हैं और जातिका मद करते हैं, यह बड़ा आश्रर्य है । ३४-३५। देखो ! पूर्वभवमें श्याल पर्यायमें जो अशुद्ध रस्सीका भक्षण करके प्राणान्त हुए हैं, वे ही द्विजपुत्र विद्वानोंके सन्मुख मान शिखरपर चढ़ रहे हैं | ३६ | हे विप्रों ! जो तुम्हारे वैराग्यका कारण है, उसे तुमने क्यों विसार दिया ? क्योंकि यह जीव भवभवान्तर में जैसे पुण्यका संचय करता है, उसीके अनुसार मिष्ट फलको भोगता है |३७| जो जीव समीचीन ( यथार्थ ) धर्मसे विमुख रहता है, वह जाति, रूप, कुल, सौभाग्य, धन, धान्यसे भी वर्जित रहता है और उसे विद्या, यश, बल, लाभ आदि उत्तमोत्तम पदार्थों की प्राप्ति नहीं होती । धर्मविहीन प्राणी उत्तम सुखका भागी नहीं होता । ३८-३९। सत्यार्थ धर्मके प्रभाव से यह जीव उत्तम अंगका, उच्चकुलमें जन्म लेनेवाला विद्यावान, धनवान, सुखी, देवपूजा में तत्पर रहनेवाला, सबजीवों पर दया करने वाला, सर्वका हितैषी और क्रोध मान कषायकर रहित होता है | ४०-४१ | इसलिये तत्त्वज्ञानियोंको प्रथम ही धर्म धर्मका स्वरूप भली भांति समझ लेना चाहिये और पापको दूर ही से छोड़कर अपने चित्तको धर्ममें लगाना चाहिये ।४२। द्विजपुत्रों ! यदि तुम कहो कि परभवकी वार्ता जो वर्णन की गई है हमें याद नहीं आती, तो मैं For Private & Personal Use Only International चरित्र www.janbrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy