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स्वोपज्ञ
चतुर्थः
वृत्ति
विभूषितं योगशास्त्रम्
प्रकाशः श्लोकः ९० ॥ ८८६ ॥
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रोहेइ वणं छठे हिअमिअभोई अजमाणो वा । तत्तियमेत्तं छिज्जइ सत्तमए पूइमंसाइ ॥ ४ ॥ तह वि अठायमाणे गोणसखड्याइ रप्फए वा वि । कीरइ तयंगछेओ सअटिओ सेसरक्सट्ठा ॥ ५॥ मृलोत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसल्लपहवो भाववणो होइ नायव्वो ॥ ६ ॥ भिक्खेरियाइ सुज्झइ अइयारो कोइ वियडणाए उ । वीओ हाऽसमिओ मि त्ति कीस सहसा अगुत्तो अ॥७॥ सद्दाइएसु राग दोसं च मणे गओ तइअगम्मि। नाउं अणेसणिज्जं भत्ताइविगिंचण चउत्थे ॥ ८॥
HEHREENSHEREHENEVEREMETRIEVESHCHCHEREMEHEHCHEHEHEYE
निर्जराभावनायामाभ्यन्तरतपःस्वरूपम्
१ तित्तिय-शां.॥ २ मंसाई-मु.॥ ३ अट्ठाय०-संपू. मु.॥ ४ भिक्खायरियाइ-मु.॥ भिक्खारियाइ-हे.॥ ५ अईयारो-हे.॥ ६ बीओ उ असमिओ ति कीस-संपू.। बीओ उ त्ति समिओ उ कीस-शां.। बीओ उ ति समिओ छ उ ति कीस-ख.। बीओ ह असमिओ मि त्ति कीस-मु.॥ ७ अगुत्तो वा-मु.॥ ८ मणा-मु.॥
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