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तृतीयः
प्रकाशः श्लोकः १२९ | ॥६९४॥
क्रमण
स्वोपक्ष
अह सम्ममवणअंगो करजुअविहिधरिअपुत्ति-रयहरणो। वृत्ति
परिचिंतिअ अइआरे जहक्कमं गुरुपुरो वियडे ॥ ८॥ विभूषितं
अह उवविसित्तु सुत्तं सामाइयमाइयं पढिय पयओ। योगशास्त्रम्
'अब्भुट्टिओ म्हि' इच्चाइ पढइ दुह उढिओ विहिणा ॥ ९ ॥ ॥ ६९४॥
दाऊण वंदणं तो पणगाइसु जइसु खामए तिण्णि । कीकम्मं करि आयरिअमाइगाहातिगं पढइ सैद्धो ॥ १० ॥ इय सामाइयउस्सग्गमुत्तमुच्चरिय काउस्सग्गठिओ।
चितइ उज्जोयदुर्ग चरित्तअइयारसुद्धिकए ॥ ११ ॥ १ अथ सम्यगवनताङ्गः करयुगविधिधृतमुखपोतिकारजोहरणः। परिचिन्त्य अतिचारान् गुरोः पुरतः प्रकटयेत्॥८॥ अथ उपविश्य सूत्रं सामायिकादिकं पठित्वा प्रयतः। 'अन्भुटिओ म्हि' इत्यादि पठति द्विधा उत्थितो विधिना ॥९॥ दत्त्वा वन्दनं ततः पञ्चकादिषु यतिषु क्षमयेत् त्रीन् । कृतिकर्म कृत्वा 'आयरिय' आदि गाथात्रिकं पठति श्राद्धः॥१०॥ इति सामायिकउत्सर्गसूत्रमुच्चार्य कायोत्सर्गस्थितः। चिन्तयति उद्योतद्विकं चारित्रातिचारशुद्धिकृते॥११॥
२ अब्भुट्ठियओ म्हि-मु.॥ अब्भुट्ठियम्हि-शां. खं. ॥ ३ तह-खं. ॥ ४ किइकम्म-मु.॥ ५ करे-मु. खं.॥ ६ सद्धो क-नास्ति मु.॥ ७ चिंतइ य उज्जो०-सं. ॥
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