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________________ सवृत्तिके धर्मबिन्दौ પ્રસ્તાવના __ "नमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थे निर्मिता एव, वृत्तिललितविस्तरा ॥" -मुझे धर्ममें प्रवेश करानेवाले धर्मबोधकर आ० हरिभद्रसूरि हैं, जिन्होंने अपनी समयसूचकतासे मानों मेरे ही लिये चैत्यवन्दन पर 'ललितविस्तरा' नामकी टीका बनाई न हों ऐसे हरिभद्रसूरिजीको नमस्कार हो। यद्यपि इस पाठसे आ० हरिभद्रसूरि सिद्धर्षिसूरिजीके साक्षात् गुरु हो ऐसा भ्रम उपस्थित हो जाता है, किन्तु श्रीसिद्धर्षिसूरि वि.सं. ९६२में हुए हैं और उन्होंने 'समयसूचकता'का निर्देश भी किया है इससे आ० हरिभद्रसूरि आ० सिद्धर्षिसूरिजीके साक्षात् गुरु नहीं परन्तु उनके शास्त्रो द्वारा विवेकचक्षु खोलनेवाले सत्यपथ प्रदर्शकके रूपमें परंपरासे गुरु है- ऐसा यहां भ्रमस्फोट किया जाता है। मतलब कि आ० हरिभद्रसूरिजी उनसे पहिले लेकिन कुछ नजदीकमें ही हो गये हैं ऐसा स्पष्ट हो जाता है। इन उपर्युक्त प्रमाणोंसे निर्णीत है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि.सं. ७८५ के अरसेमें विद्यमान थे। इस तरह आ० हरिभद्रसूरिजीके समयके बारेमें दो मत प्रचलित हैं और उसमें करीब २०० वर्षका अंतर है 'सूरिविद्या' पाठ प्रशस्तिका वि.सं. ५८५ का सबल प्रमाण है किन्तु वह प्रशस्ति उस समयकी नहीं अर्थात् पश्चात्कालमें लिखे हुए परिचय रूप है इससे यह मानना सर्वथा उचित है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि.सं.७८५ करीब हुए हैं। इस तरह इस ग्रन्थ और उनके रचयिताके बारेमें हमने जो कुछ संक्षेपमें निर्देश किया है उसमें विद्वानोंकी प्रगट सामग्रीका काफी उपयोग किया है। उन सब एकका साथ आभार मानते हुए यह उपोद्घात समाप्त करता हूं। વારાણસીના ચૌખંભા ઓરિએન્ટાલિયાથી ઇસ્વીસન ૧૯૭૭ માં પ્રકાશિત થયેલા ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી મહારાજવિરચિત સ્વાવાદક૯૫લતા ટીકા સહિત શાસવાતસમુચ્ચયના હિંદીભાષાંતર સહિત પ્રથમ વિભાગની હિંદી ભૂમિકામાં મુનિરાજશ્રી જયસુંદરવિજયજી મહારાજે જે વિચારો આ અંગે જણાવ્યા છે તેનો કંઈક સાર આ પ્રમાણે છે. - (१) पंचसए पणसीए.......मा गाथा भने स्थणे भणे छते प्रमाणे मा.श्री रमरिमबा२16 विमसंवत् ५८५मा स्वस्थ था छ, ते ७५id એક પ્રમાણ એ છે કે(२) धुक्षेत्रसमासनीमा.श्री रिमसूरिवि२यित वृत्तिनी ताडपत्र पर बनायेदी में प्रति (जम्बूद्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति उभा १८६, पत्र संध्या २९) सलमेरमा છે. તેના અંતમાં નીચે મુજબ ઉલ્લેખ છે – इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता । विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः ॥छ।। | २४ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600011
Book TitleDharmabinduprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay, Pundrikvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages379
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ethics, & Principle
File Size21 MB
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