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________________ सवृत्तिके धर्मबिन्दौ २३ पूरावा है। इससे इस घटना आ० समुद्रसूरिजीके शिष्य आ० मानदेवसूरिजीके साथ संबंध रखनेवाली है ऐसा मानना ज्यादा उचित है। यदि प्रशस्ति उसी समयकी हो तो आ० हारिल और आ० मानदेवसूरिजी (दूसरे) समकालीन है यह बात निश्चित हो जाती है, परंतु यह प्रशस्ति पश्चात्कालकी हो तो आ० हरिभद्रसूरि और आ० प्रद्युम्नसूरिजीके शिष्य मानदेवसूरिजी (तिसरे) समकालीन है ऐसा मानना पडेगा। (७) 'गुर्वावली' आदिके पाठोंका भी समाधान उक्तरीत्या समझना चाहिए। इस तरह उपर मुजब खुलासा हो जाता हैं। यह तो हुआ पाठोंका समाधान, लेकिन श्रीहरिभद्रसूरिजी वि.सं. ७८५ के अरसेमें स्वर्गस्थ हुए उसका पाठ |प्रस्तावना निचे मुजब है। १. बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति, शैवाचार्य भर्तृहरि और मीमांसक कुमारिल भट्ट आदि विद्वान विक्रमकी आठमी सदीमें हुए हैं। आ० हरिभद्रसूरिजीने अपने ग्रन्थोंमें उनके नाम और उनके ग्रन्थोंके नामका उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि आ० हरिभद्रसूरिजी उनके पीछे हुए हैं। २. आ० जिनभद्रसूरिजीने वि.सं. ६६६ में 'विशेषावश्यकभाष्य' की रचना की है। उसमें एक 'ध्यानशतक' की रचना है और उस पर आ० हरिभद्रसूरिजीने टीका बनाई है, जिससे निश्चित हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरि उस रचना संवत् पीछे हुए हैं। ३. आ० जिनदासगणि महत्तरने वि.सं. ७३३ लगभगमें चूर्णिग्रन्थोंकी रचना की है। आ० हरिभद्रसरिजीने उन चूर्णियोंके आधार पर 'आवश्यक-निर्यक्ति टीका. नन्दीसूत्र टीका' आदिकी रचना की है। आ० हरिभद्रसूरिजीने 'महानिशीथसूत्र' का जो जीर्णोद्धार किया था उसका प्रथम आदर्श आ० जिनदासगणिको वांचनेको दिया था। इससे अब कहनेकी जरूरत नहीं है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि.सं. ७३३ के पीछे हुए हैं। ४, आचार्य गुणनिधानसूरि शिष्य आ० हर्षनिधान 'रत्नसंचय' में यह अवतरण गाथा देते हैं पणपनबारससए, हरिभद्रसूरि आसीऽपूव्वकई तेरससय वीस अहिए, सरिसेहिं बप्पभट्टिपहू ॥२८२।। -वीर नि.सं. १२५५ (वि.सं. ७८५) में महान ग्रन्थकार आ० हरिभद्रसूरिजी हुए। वीर नि.सं. १३२० (वि.सं. ८५०)में आ० बप्पभट्टिसूरि हुए। ५. दाक्षिण्यचिह्न आ० उद्योतनसूरिजी वि.सं. ८३५में अपनी रची हुई 'कुवलयमाला'की प्रशस्तिमें लिखते हैं सो सिद्धन्तेण गुरू, जुत्तिसत्थेहिं जस्स हरिभद्दो । बहुसत्थगन्थवित्थरपत्यारिय पयडसच्चत्थो ।।१५।। -मेरे सिद्धांत गुरु आ० वीरभद्रसूरिजी हैं और न्यायशास्त्र के गुरु एवं अनेक ग्रन्थोंके निर्माता आ० श्रीहरिभद्रसूरिजी हैं । अर्थात् यह श्रीउद्योतनसूरि वि.सं. | २३ ७८५ के अरसेमें थे यह अति विश्वस्त प्रमाण है। ६.आ. सिद्धर्षिगणि अपनी 'उपमितिभवप्रपञ्चाकथा' में लिखते हैं कि Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600011
Book TitleDharmabinduprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay, Pundrikvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages379
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ethics, & Principle
File Size21 MB
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