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सवृत्तिके धर्मबिन्दौ
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પ્રસ્તાવના
- आचार्य मानदेवसूरि जो आ० समुद्रसूरिके पट्टधर और हरिभद्रसूरिजीके वयस्य थे, उनके गुरुजीने सं. ५८२ में चंद्रकुलका सूरिमन्त्र दिया और चिरमित्र आ० हरिभद्रसूरिने सप्रेम विद्याधर कुलका सूरिमंत्र दिया लेकिन वे उन मन्त्रपाठोंकी समानता, दुष्काल, लोगोका संहार और रोगके कारण मन्त्रको भूल गये और पीछेसे उन्होंने गिरनार पर तप करके श्रीसीमंधरस्वामीने उपदिष्ट किया हुआ मंत्र अंबिकादेवीको प्रसन्न करके प्राप्त किया आदि. (गाथा १-१२)
इससे निश्चय हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरिजी और आ० मानदेवसूरिजी सं. ५८२ में हए थे और दोनो समकालीन थे। ७. 'गुर्वावली' और 'पट्टावलियों में आ० हरिभद्रसूरि और आ० मानदेवसूरिजीको समकालीन आचार्य बताया गया हैं। फलतः इन सब पाठोंसे स्पष्ट होता है कि आ० हरिभद्रसूरिजी सं ५८५ में स्वर्गस्थ हुए हैं।
आ० हरिभद्रसूरिजीके समयनिर्णयमें दूसरे मत के मुताबिक वे वि.सं. ७८५ लगभगमें स्वर्गस्थ हुए । इससे सिद्ध है कि उपरके जो पाठ दिये गए हैं वे सब इसके विरुद्ध जाते हैं । इसके लिये खुलासा किया जाता है कि, उपर दर्शाये हुए सब पाठ युगप्रधान आ० हारिलसूरि कि जिनका नाम हरिगुप्त और आ० हरिभद्र भी है और जो वी.नि.सं. १०५५ वि.सं. ५८५ में स्वर्गस्थ हुए हैं उनकी जीवनघटनाके साथ संगत होते हैं। अर्थात् -
(3) पंचसए' वाली पड़ावलियोंकी गाथा आ० हारिलका स्वर्गसंवत् बताती है। वस्तुत: 'पंचसए' के बदले 'सत्तसए' पाठ मान लिया जाय तो वह गाथा हरिभद्रसूरिजीके स्वर्गवास समयके साथ लागू पड सके ।
(२) 'दुस्समकालथयं की अवचूरिमें आ० हारिलके पीछे 'पंचसए' वाली गाथा दी है और उसके पीछे जिनभद्रसरिजीका समय बताया गया है वहां भी हारिल और हरिभद्रसूरिजीको एक माना जाय तो ही उनके पीछे आ० जिनभद्रसूरिजी होनेका संगत हो सकता है।
(३) 'विचारश्रेणी के पाठके लिये भी ऊपरका ही समाधान है।
(४) परंतु आ० हरिभद्रसूरिजीने 'महानिशीथसूत्र'का उद्धार किया, उस सूत्रकी संस्कृत प्रशस्तिमें समकालीन आचार्योक नाम दिये हैं, उनमें आ० हरिभद्रसूरिजीका नाम है । आ० जिनदासगणि क्षमाश्रमणका नाम है, लेकिन आ० जिनभद्रगणिका नहीं है। अत: 'विविधतीर्थकल्प'के उल्लेखको दूसरे पुरूत प्रमाणकी अपेक्षा रहती
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(५) 'विचारसार'में मतांतर है वही वि.सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीके स्वर्गवासकी बातको कमजोर बनाता है और गाथा ३० में दिया हआ 'धम्मरओ' शेिषण आ० हारिलके साथ ज्यादा लागू होता है । 'पणतीए के स्थानमें 'पणसीए' माना जाय और फिर 'पंचसए पणसीए के स्थानमें 'सत्तसए पणसीए' माना जाय तो बराबर कालसंगति हो जाती है। बाकीके चालू स्थितिके पाठ भी आ० हारिलसूरिजीके साथ संबंध रखते हैं।
(६) 'सूरिविद्या' पाठकी प्रशस्तिमें आ० हरिभद्रसूरिजी और आ० समुद्रसूरिजीके पट्टधर आ० मानदेवसूरिजीको एककालीन बताये गये हैं। यह एक सबल Jain Education International
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