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________________ सवृत्तिके धर्मबन्दी २१ - वि.सं. ५८५ में हरिभद्रसूरि स्वर्गस्थ हुए। वे भव्य मनुष्योंका कल्याण करो । २. आ० धर्मघोषसूरि 'दुस्समकालसमणसंघथयं' की अवचूरिमें लिखते हैं " सत्यमित्र ७ हारिल ५४ ॥ पंचसए पणसीए, विक्कमकालाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो, भवियाणं दिसउ कल्लाणं ॥ जिनभद्रगणिः ६० ॥" —आ० सत्यमित्र ७ वर्ष, आ० हारिल ५४ वर्ष युगप्रधान रहे, वि.सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीका स्वर्ग, आ० जिनभद्रगणि ६० वर्ष युगप्रधा ३. आ० मेरुतुंगसूरि अपनी 'विचारश्रेणि' में लिखते हैं "श्रीवीरमोक्षाद् दशभिः शतैः पञ्चपञ्चाशदधिकैः (१०५५) श्रीहरिभद्रसूरे: स्वर्गः । उक्तं च- पंचसए पणसीए, विक्कमकालाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो, भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। ततो जिनभद्रक्षमाश्रमणः ६५ ।। " - वीर संवत् १०५५ - वि. सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीका स्वर्ग, उसके बाद आ० जिनभद्र क्षमाश्रमण हुए। उनका युगप्रधानत्व ६५ वर्ष । ४. आ० प्रभाचन्द्रसूरि 'प्रभावकचरित' में लिखते हैं- आचार्य हरिभद्रसूरिजीने 'महानिशीथसूत्र' का जीर्णोद्धार किया और आ० जिनप्रभसूरि 'विविधतीर्थकल्प' में लिखते हैं कि आ० जिनभद्र क्षमाश्रमणने मथुरामें 'महानिशीथसूत्र' का उद्धार किया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनो आचार्य समकालीन हैं। ५. आ० प्रद्युम्नसूरि 'विचारसार' में कितनीक गाथाओंका अवतरण देते हैं “पंचसए पणतीए, विक्रमभूवाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्रसूरिसूरो, धम्मरओ देउ मुक्खसुहं ॥ अहवा - पणवन्न दससएहिं, हरिसूरी आसी तत्थ पुव्वकई । तेरसवरिससएहिं, अईएहिं बप्पहट्टि पहू ॥" - एक उल्लेख ऐसा है कि वि.सं. ५३५ में धर्मरत आ० श्रीहरिभद्रसूरिजी स्वर्गस्थ हुए। वे मोक्षका सुख दो। मतान्तरसे ऐसा भी पाठ मिलता है कि वीर सं. १०५५ में श्री हरिभद्रसूरिजी हुए और वीर नि० सं० १३०० में आ० बप्पभट्टिसूरिजी हुए। इन दो गाथाओसे दो मतांतरोंके संवत् दिये गये हैं। यदि 'पणतीए' की जगह 'पणसीए' का पाठ मान लिया जाय तो मतांतर रहता नहीं है। यहां जो बप्पभट्टसूरिजीका स्वर्गगमन सं. १३०० में बताया गया है वह भी मतांतरके रूपमें ही है, क्योंकि 'विचारश्रेणि' वीर सं. १३०० में, १३६० में रत्नसंचयमें वी.सं. १३२० में और 'तपगच्छीय पट्टावली'ओमें वीर सं. १३६४ में आ० बप्पभट्टिसूरिजीका स्वर्गगमन बताया है। ६. बृहद्गच्छीय सूरिविद्या प्रशस्तिमें निम्नलिखित गाथायें हैं " दिनो हरिभद्देण वि, विजाहरवायणाए तया ||३|| चिरमित्त पीइतोसा, दिनो हरिभद्रसूरिणा बिइओ । विजाहरसाहिणो, मंतो सिरिमाणदेवस्स ||४|| " यह प्रशस्तिका पूर्वापर संबंध और सार इस प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only પ્રસ્તાવના २१ www.jainelibrary.org
SR No.600011
Book TitleDharmabinduprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay, Pundrikvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages379
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ethics, & Principle
File Size21 MB
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