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Jain Terms Preserved: 1. Jivatthaana-Chulikaaye Paryaaptisamukttinam 2. Aabhinibodhikajnaana 3. Shrutajnaana 4. Avadhijnaana 5. Manaḥparyayajnaana 6. Kevalajna̅na 7. Darshanaavaraniiya Karma
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________________ १,९-१, १५] जीवट्ठाण-चूलियाए पयडिसमुक्त्तिणं [२६३ उक्त और अध्रुवके भेदसे बारह प्रकारके पदार्थोंको ग्रहण करते हैं, अतः उनके अड़तालीस (१२४४) भेद हो जाते हैं । ये अड़तालीस भेद चूंकि पांच इन्द्रियों और मनसे उत्पन्न होते हैं अत एव अर्थावग्रहके (४८४६=२८८) भेद हो जाते हैं । अव्यक्त पदार्थका ज्ञान मन और चक्षु इन्द्रियसे नहीं होता, तथा उस अव्यक्त पदार्थका केवल अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते । इस कारण उपर्युक्त बाह्य पदार्थोंको शेष चार इन्द्रियोंसे गुणित करनेपर व्यंजनावग्रहके ४८ भेद होते हैं । पूर्वोक्त २८८ भेदोंमें इन ४८ भेदोंको मिला देनेपर आभिनिबोधिकज्ञानके सब भेद ३३६ होते हैं । इस प्रकारके ज्ञानका जो आवरण करता है उसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। - मतिज्ञानसे ग्रहण किये गये पदार्थके सम्बन्धसे अन्य पदार्थका जो ग्रहण होता है उसका नाम श्रुतज्ञान है । जैसे ' घट ' आदि शब्दोंको सुनकर उनसे घट आदि पदार्थोंका बोध होना अथवा धूमको देखकर उससे अग्निका ग्रहण करना । वह श्रुतज्ञान वीस प्रकारका है- पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्रामृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास । इस बीस भेदरूप श्रुतज्ञानका जो आवरण करता है वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्म है। जो नीचेकी ओर विशेषरूपसे प्रवृत्त हो उसे अवधिज्ञान कहते हैं । अथवा अवधि नाम मर्यादाका है । इसलिये द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विषय सम्बन्धी मर्यादाके ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । वह अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके भेदसे तीन प्रकारका है। जो कर्म इस अवधिज्ञानका आवरण करता है उसे अवधिज्ञानावरण कहते हैं। दूसरे व्यक्तिके मनमें स्थित पदार्थ उपचारसे मन कहलाता है, उसकी पर्यायों अर्थात् विशेष अवस्थाओंको मनःपर्यय कहते हैं, उन्हें जो ज्ञान जानता है वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है । वह मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान मनसे चिन्तित पदार्थको ही जानता है, अचिन्तित पदार्थको नहीं जानता । चिन्तित पदार्थको भी जानता हुआ वह सरल रूपसे चिन्तितको ही जानता है, वक्ररूपसे चिन्तित पदार्थको नहीं जानता । किन्तु विपुलमति मनःपर्ययज्ञान चिन्तित और अचिन्तित तथा वक्रचिन्तित और अवक्रचिन्तित पदार्थको भी जानता है। इस प्रकारके मनःपर्ययज्ञानका आवरण करनेवाले कर्मको मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। 'केवल ' असहायको कहते हैं । जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक आदिकी अपेक्षासे रहित है, तीनों कालों सम्बन्धी अनन्त वस्तुओंको जानता है, सर्वव्यापक है, और प्रतिपक्षसे रहित है; उसे केवलज्ञान कहते हैं । इस केवलज्ञानका आवरण करनेवाले कर्मको केवलज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। दंसणावरणीयस्स कम्मस्स णव पयडीओ ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600006
Book TitleShatkhandagam
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
Author
PublisherWalchand Devchand Shah Faltan
Publication Year1965
Total Pages966
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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