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1. Audarikakayayoga and Audarikamishrakayayoga are for Tiryanchas (animals) and Manushyas (humans). 2. Vaikriyikakayayoga and Vaikriyikamishrakayayoga are for Devas (celestial beings) and Narakis (hell beings). 3. Aharakayayoga and Aharamishrakayayoga are for Sanjnins (conscious beings) and Indriyaprapta (beings with senses).
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________________ १, १, ५९ ] संतपरूवणाए जोगमग्गणा [ २५ औदारिकशरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्तिसे जीव के प्रदेशोमें परिस्पन्दका कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं । पुरु, महत्, उदार और उराल ये शब्द एकार्थवाचक हैं। उदारमें जो होता है उसे औदारिक और उसके निमित्तसे होनेवाले योगको औदारिककाययोग कहते हैं । यह औदारिकशरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक मिश्र कहलाता है । उसके निमित्तसे होनेवाले योगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं । जो शरीर अणिमा - महिमा आदि अनेक ऋद्धियोंसे संयुक्त होता है उसे वैक्रियिकशरीर और उसके निमित्तसे होनेवाले योगको वैक्रियिककाययोग कहते हैं । वह वैक्रियिकशरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक मिश्र कहलाता है । उसके द्वारा होनेवाले योगको वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहा जाता है । जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थोंका आहरण (ग्रहण) करता है उसे आहारकशरीर और उस आहारकशरीरसे जो योग होता है उसे आहारककाययोग कहते हैं । अभिप्राय यह है कि छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके चित्तमें सूक्ष्म तत्त्वगत संदेह उत्पन्न होनेपर वह जिस शरीरके द्वारा केवलीके पास जाकर सूक्ष्म पदार्थोका आहरण ( ग्रहण ) करता है उसे आहारकशरीर और उसके द्वारा होनेवाले योगको आहारककाययोग कहते हैं । वह आहारकशरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक उसको आहारकमिश्र कहते हैं । उसके द्वारा जो योग होता है उसे आहारकमिश्रकाययोग कहते हैं । यह आहारकशरीर सूक्ष्म होनेके कारण गमन करते समय वैक्रियिकशरीरके समान न तो पर्वतोंसे टकराता है, न शस्त्रोंसे छिदता हैं, और न अग्निसे जलता भी है । ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंके स्कन्धको कार्मणशरीर कहते हैं । अथवा जो कार्मणशरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होता है उसे कार्मणशरीर कहते हैं । उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग एक, दो अथवा तीन समय तक होता है । अब औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग किसके होते हैं, इसका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो तिरिक्ख- मणुस्साणं ॥ ५७ ॥ औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यंच और मनुष्योंके होते हैं ॥ ५७ ॥ आगे वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग किन जीवोंके होता है, इसका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--- छ ४ व्किायजोगो वे व्त्रियमिस्सकायजोगो देव- रइयाणं ।। ५८ ।। वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग देव और नारकियोंके होता है ॥ ५८ ॥ अब आहारककाययोगके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंआहारकायजोगो आहार मिस्सकायजोगो संजदाणमिढिपत्ताणं ।। ५९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600006
Book TitleShatkhandagam
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
Author
PublisherWalchand Devchand Shah Faltan
Publication Year1965
Total Pages966
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size20 MB
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