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धर्मदूत जो हिन्दू महासभा के कांग्रेस-विरोध के पक्के विरोधी। उन-हिन्दू महा समाई नेताओं को एक बारगी ही टंडा भिक्षु उत्तम अध्यक्ष और भाई परमानन्द उपाध्यक्ष। कर दिया। अजब बेमेल जोड़ी थी। श्रीयुतु युगल किशोर बिड़ला अब हिन्दू महासभा जिस बात को अपनाने की के विशेष प्रयत्न से ही वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बात कर रही है, काश ! उसने अपने आरम्भ से ही उसे बने थे। किन्तु थोड़े ही दिनों में लोगों को पता लग अपनायी होती। किन्तु सामाजिक क्रान्ति का कार्यक्रम गया कि यह टेढ़ी-मेढ़ी हिन्दी बोलने वाला बौद्ध साधु किसी को भी अपील नहीं करता। कांग्रेस ने ही उसे प्रायः हर बारे में अपनी स्पष्ट राय रखता है. और उसके अपने हाथ में लिया और न हिन्द-महासभा ने ही। धर्म को अथवा उसकी राजनीति को पचा जाना लोगों को देखा है कि वे प्रायः दूसरों पर नीतिआसान नहीं।
शास्त्र के नियमों की बड़ी कड़ाई से लादते हैं। किन्तु
भिक्षु उत्तम अपने ही प्रति विशेष रूप से कड़े थे। दिल्ली में प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता ला नारायण
दूसरा आदमी चाहे प्रायः कैसा भी हो, उसे निभा लेते। दत्त जी के यहाँ उतरे थे। एक दिन लाला जी ने कहा
एक बार न जाने पंजाब में ही कहां से कहां को यात्रा देखिये भिक्षुजी इस चित्र में राम, कृष्ण और अन्य अव
की जा रही थी। रात के समय ड्योढ़े दर्जे में चढ़े । तारों के साथ बुद्ध का भी चित्र है। सोचा होगा भिक्षुजी
डिब्बे में जगह काफी थी। लोगों ने कहा कि आप बड़े प्रसन्न होंगे? बोले क्या खाक है ! एक योगी को
का बिस्तर खोलकर बिछा दें। लेट जाइयेगा। बोले कामभोगियों के साथ ले जा बिठाया है। ऐसी तीखी
नहीं हमने लेटने का टिकट नहीं लिया है । वह सारी बात कह सकने वाले अपने सभपति को कोई क्या
सत अपने बिस्तरे के सहारे बैठे रहे। एक मिनट भी कहे ? हिन्दू बौद्ध एकता का प्रदर्शन करने के लिये
बिस्तर बिछाकर लेटे नहीं। जिसे अभी चार ही दिन हुये सभापति बनाया, उससे
वे नित्य कुछ पालि सूत्रों का पाठ किया करते थे। लड़ा भी नहीं जा सकता था!
दिन में अगर व्याख्यानों का तांता लगा रहे तो कोई भिक्ष उत्तम चाहते थे कि हिन्द-महासभा राजनीति परवाह नहीं। शाम को यदि पाठ करने के लिए समय में न पड़कर केवल समाज-सुधार का कार्य करे। राज नहीं मिला ह ता काई चिन्ता नहा। रात का बारह बज नीति में वह कांग्रेस के साथ थे जो हिन्द-महासभा के बाद तो रात अपनी है। मैंने उन्हें रात के एक और को करना चाहिए था, वह या तो करती ही न थी, दो बजे पाठ करते देखा है; बिना पाठ किये सोते कभी या उससे होता ही न था। इसलिए भिक्ष उत्तम उसे नहीं देखा । कभी-कभी बड़े आड़े हाथों लेते थे। रावलपिंडी को अपने प्रति तो इतने बड़े किन्तु दूसरों के प्रति ? एक एक सभा में लोगों ने. जिनकी राजनीति केवल चनाव पंजाबी तरुण हमारे साथ चल रहे थे। दो चार स्टेशन लड़ने और मुसलमानों को गालियाँ देने अथवा उनकी साथ रहने पर भी मुझे सन्देह हुआ कि वह खाने-पीने की शिकायतें करने में ही समाप्त हो जाती थी. भिक्ष चीजें खरीदने जाते हैं तो बीच में कुछ पैसे बना लेते हैं। उत्तम को चारों ओर से घेरा । जब भिक्षु उत्तम से न
मैंने महास्थविर का ध्यान आकर्षित किया । बोले आखिर रहा गया तब उपस्थित लोगों को डांटकर बोले-राज- इतनी गर्मी में अपने पीछे-पीछे दौड़ता है । कोई वेतन तो नीति-राजनीति करता है। छोड़ेगा सरकारी रेल-तार. पाता नहीं। कुछ न कुछ बनायेगा ही। बहुत नहीं छोड़ेगा सरकारी डाकखाना। करेगा अंग्रेजी स्कूलों और बनाता । चुप रहो। कचहरियों का बायकाट । होता-जाता कुछ नहीं। राज- प्रायः हर देशाटन करने वाले को दो-चार भाषाओं नीति, राजनीति करता है ! उनकी वह डांट मुझे अभी से परिचय हो ही जाता है। भिक्षु उत्तम अपनी मातृभी ज्यों की त्यों सुनाई दे रही है। उसने रावलपिंडी के भाषा वर्मी के अतिरिक्त, जापानी, बँगला, हिन्दी, अंग्रेजी