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भिक्षु उत्तम
नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- नहीं भन्ते, मैं तो एक बार रामेश्वर पहुँचकर भारतभाता के चरणों में प्रणाम करके ही आना चाहता हूँ ।
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उस समय तक उर्दू समाचार-पत्रों की कृपा से मैं उन्हें भिक्षु ओटामा ही समझता था और न जाने कैसे भिक्षु ओटामा और ओटावा कान्फ्रेंस में कुछ बहुत भेद भी न कर पाता था ?
दो-तीन वर्ष सिंहल रहकर भारतीय सत्याग्रह संग्राम में हिस्सा लेने की इच्छा से जब मैं १९३० में बम्बई भाग आया, तो उस समय वे बम्बई के प्रसिद्ध बुद्ध-भक्त स्वर्गीय डा० नायर के यहाँ ठहरे हुए थे। मैं उनसे मिला । बहुत देर तक बातें की। बड़ी जली-कटी सुनने को मिली। उस दिन पहले पहल में इस बात को समझ सका कि प्रकाश की आवश्यकता हो तो भाग से नहीं घबराना चाहिये । भिक्षु उत्तम सचमुच कुछ इतने खरे थे, इतने आग थे कि सहज में उनके पास कोई ठहर ही न] सकता था, किन्तु ऐसी आग कि समय आने पर वह दूसरों को पिलाने का कारण बनने की बजाय स्वयं ही पिघल जायें।
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बीच-बीच में भेंट हुई तो, किन्तु कानपुर-हिन्दू महासभा की समाप्ति के बाद तो उन्होंने मुझे अपना अनुचर ही बना लिया, बोले- चलो साथ चलें मेरी अपेक्षा । कहीं' ज्येष्ठ होने से उनका मुझ पर वही अधिकार था जो बड़े भाई का छोटे भाई पर; वह किसी से मेरा जिकर भी करते थे तो भाई आनन्द जी ही कहते थे। कानपुरअधिवेशन की ही, उनकी कम से कम तीन बातें हृदय पर अंकित है
(क) अधिवेशन हो रहा था। कार्यसमिति में अथवा हिन्दू सभा में बुद्धगया का प्रक्ष उपस्थित था। बौद्ध होने से उनकी स्वाभाविक सहानुभूति ही नहीं, उनका हृदय बौद-माँग के साथ था, किन्तु हिन्दू महासभा के अध्यक्ष की हैसियत से वे तटस्थ रहने के लिये मजबूर थे । वही विषम परिस्थिति थी तब उन्होंने एक कथा सुनाई। वोले- एक शेर था वह प्रायः जानवरों को अपना मुँह सुँचाता और उनसे पूछता कि उसके मुँह से सुगन्ध आ रही या दुर्गन्ध ? कोई डर के मारे कह देता
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कि आपके मुँह से सुगन्ध आ रही है। शेर उसे डाँटता । मैं दिन भर जानवरों को मार-मार कर खाता रहता हूँ ; मेरे मुँह से सुगन्ध कैसे आ सकती है ? और वह उसे खा जाता । कोई जानवर साफ-साफ कह देता कि मुँह से दुर्गन्ध आ रही है, तब शेर गर्ज उठता- मैं जंगल का राजा मेरे मुँह से दुर्गन्ध आ सकती है ? वह उसे भी खा जाता। एक गीदड़ ने सोचा क्या किया जाय, दोनों तरह जान जाती है। शेर ने उससे भी पूछा- मेरे मुँह से सुगन्ध आ रही है अथवा दुगंध ! गीदर बोला- हुजूर मुझे तो जुकाम हो रहा है। पता ही नहीं लगता कि आपके मुँह से सुगन्ध है अथवा दुर्गन्ध ? सब लोग खिलखिला कर हँस पड़े। भाई परमानन्द, जो हिन्दू सभा के कार्याध्यक्ष थे, वे तो एकदम लोटपोट हो गये। सभी भिक्षु उत्तम की इस चतुराई पर प्रसन्न थे कि उन्होंने अध्यक्ष की तटस्थता की रक्षा करते हुये अपना मत भी व्यक्त कर ही दिया ।
मैं उनके साथ सारा उत्तर भारत घूमा। वे भाषाओं में व्याकरण शुद्ध भाषा न बोलते थे, किन्तु ऐसा एक भी अवसर याद नहीं जब उनके प्रत्युत्पन्नमतित्व ने उनका साथ छोड़ा हो ।
(ख) अधिवेशन समाप्त हुये तो कानपुर के ही किसी एक बड़े औषधालय के मालिक उन्हें अपने यहाँ बुलाकर उनका स्वागत सत्कार करना चाहते थे । मैंने देखा । कि वह बराबर बच रहे हैं। एक बार बोले - हमें अपने यहाँ बुलाकर अपनी दवाइयों का ही विज्ञापन करेगा। अधिक आग्रह करने पर चले गये और वहाँ उनकी सम्मति पुस्तक में बड़ी ही अन्यमनस्कता के साथ मुझे दो शब्द लिख देने का आदेश भी दे दिया।
(ग) बात तो छोटी सी ही है किन्तु भिक्षु उत्तम की विशेषता पर प्रकाश डालती है । उन्हें गांधी जी की ही तरह अपने संगी-साथियों का वहा पाउ रहता था उत्सव की समाप्ति पर जब उन्होंने अपने सभी साथियों के लिये सवारी की उचित व्यवस्था के बारे में अपना संतोषकर लिया तब ही वे मोटर में सवार हुवे।
वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे, किन्तु ऐसे अध्यक्ष