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समादकीय.
जैन-जीवन की जरूरत है
'जीवन एक कला है और जो भली प्रकार जीना जानता है वही सफल कला. कार है। वस्तुतः जीवन सफल करना श्रासान बात नहीं है । जिसका जीवन आदर्श जैसा हो गया वह निश्चय ही सच्चा कलाकार भी कहा जाएगा। जैनजीवन भी एक कला है । यह संस्कृत है साथ ही उपयोगी भी । जैन-जीवनानुसार व्यक्ति जन-कल्याण एवं प्राणी मात्र के त्राण को ओर अग्रसर होता है। अ० विश्व जैन मिशन जैन युवको को उस ओर ले जाना चाहता है। इन्दौर अधिवेशन इसका एक प्रयोग भी था।
अाज विश्व में विषमता फैली हुई है। एक ओर कुछेक मनुष्य मस्ती एवं मटरगस्ती कर, सुख की रंगरलियाँ कर रहे हैं; वहाँ दूसरी ओर एक वृहत जनसमूह कठिन काम की चक्की में पिसकर भी भूखों मर रहा है। बहुतों को दो रूखी-सूखी रोटी भी मुयस्सर नहीं । यह विषमता दूर होनी चाहिए । यदि जगत जैन-जीवन को अपना सके तो ये सारी समस्याएँ ही हल हो जावें । जैन-जीवन संयम से संयुक्त है। सच पूछा जाय तो उच्छङ्खलता से या स्वच्छन्दता से ही विच्छङ्खलता अथवा विषमता होती है। इसीलिए जैन-जीवनानुकूल जीवन में समय को विशिष्ट स्थान दिया गया है। और यह संमय बाहर से लादा हुश्रा नहीं है, स्वज. नित है। समय सर्वभौम एवं सर्वकालीन है अतएव उसका महत्व भी सब के लिए और सब कालों के लिए है। मानव जीवन भी सिविध कालों से गुजरता है अस्तु जीवन में समय अपना महत्व रखने योग्य है । जैन-जीवन के अनुरूप मनुष्य को किन्हीं अंशों में अपरिग्रही बनना पड़ता है। यदि अाज जग अपरिग्रही हो जाए तो यह भी निश्चित है कि विश्व की विषमता दूर हो जायगी । जब मनुष्य में परिग्रह अधिक बढ़ाने की इच्छा होती है तो उसका परिणाम यह होता है कि कुछ तो मनुष्य परिग्रह की वृद्धि करने में सफल हो जाते हैं और कुछ विफल । इस प्रकार विषमता का सूत्रपात होता है। यह तभी होगा जब मनुष्य किञ्चित अंशों में भी अपरिग्रह का पालन करने लगता है।