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________________ के रिपोर्ट तृतीय वर्ष श्री अखिल विश्व जैन मिशन * ६३ और उनसे आदान प्रदान का सम्पर्क में ढूँढने में शायद ही इस धर्मनिष्ठा स्थापित करके हम अपने धर्म की का कोई व्यक्ति मिले । अतः उस महत्ता और गौरव स्थापित कर सकते समय-प्रत्येक हृदय में ज्ञान की हैं। यह सुवर्ण अवसर है। ज्योति जगा देना उचित है; उसके ४. अहिंसा प्रचार आवश्यक है। प्रकाश में वह ममुक्ष अपना दैनिक इस यग के लिये अहिंसा राम- जीवन स्वयं निर्माण करेगा। आज वाण है और उसका प्रचार किया प्रत्येक राष्ट्र नये जीवन की ओर बढ़ जाना आवश्यक है। प्रारंभ में ही रहा है। नई नई योजनायें चल रही पूना के जैन सेठ श्री धरजी भाई है। इस अवसर पर हमारा कर्तव्य जीवन मि० मैक्के से मिलने ब्राहटन यह है कि हम सम्यक ज्ञान का गये और उनके साथ रहकर उन्होंने प्रसार करें। भारत में भी नव निर्माण ट्रेक्ट बांटकर प्रचार किया। मैक्के हो रहा है। किन्तु हमारा राष्ट्र गांधी सा० के धर्मभाव और चरित्र पालन से जी की शिक्षा को भूल गया हैवह प्रभावित हुये और उन्होंने लन्दन औद्योगी करण के पीछे पागल होकर में जैन कान्फ्रेंस का आयोजन किया पश्चिम की नकल कर रहा है। यह था; किन्तु दुर्भाग्यवश कान्फ्रेंस के स्थिति भयंकर हो सकती है । हमें दो दिन पहले ही उनका लन्दन के भौतिकता की भांति extreme में अस्पताल में स्वर्गवास हो गया। नहीं फंसना है और नहीं ही अध्याउनके अतिरिक्त दिल्ली के श्री युगुल त्मवाद में ही महब हो जाना है। हमें किशोरजी, सूरत के श्री जे० टी० तो आदर्श गृहस्थ रूप में अपने नागमोदी आदि जन बन्धुगण जो विदेश रिकों को देखना है। बर्मा और लंका गए वह इन नव दीक्षित जैन बंधुओं की सरकारों ने अपने यहाँ धर्म की से मिले हैं और वे सब उनके धर्म- शिक्षा की व्यवस्था की है। भारत में भाव की प्रशंसा करते हैं। स्वंय हमारे भी शिक्षा प्रणाली बदलने की आवरस्वागताध्यक्ष महोदय श्रीमान् सेठ यकता है। गांधीजी के अहिंसावाद राजकुमारसिंह जी वयोवृद्ध जैनबंधु को जो उन्होंने जैम कधि रायचन्द्र हवंट वेरन सा० से मिलकर आये जी से पाया, आज हमारे देश को हैं। डॉ० टाल्वोट तो इतने प्रभावित अत्यावश्यक है। अतः हमें अहिंसा है कि उन्होंने एलोपैथिक डाक्टरी- धर्म का प्रचार विदेशों के साथ-साथ दवा देना ही अपने रोगियों को बंद “भारत में भी करना उचित है। जैन कर दिया है। वह प्राकृतिक चिकित्सा मिशन अपने देश को भुला नहीं के सहारे अपने अध्यात्मवल से सकती । आप देखेंगे कि उसके द्वारा रोगियों को अच्छा करते हैं। जैनों भारत में भी प्रचार किया गया है।
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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