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हिंसा-वाणी
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उसका हृदय परिवर्तन करना है। जैन मिशन का जन्म इसीलिये हुआ है । वह जीवमय के सार्वभौमिक आत्मकल्याण का साधन लोक में फैलाना चाहता है - संकुचित साम्प्रदायिकता का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। तीर्थङ्कर भ० महावीर का आदर्श उसके सम्मुख है लोक के किसी भी विश्व विद्यालय में अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया जाता ! मिशन लड़खड़ाती दुनियाँ को अहिंसा का पाठ पढ़ाकर उसके अस्तित्व को सुदृढ़ बनाने में संलग्न है । ३. यह स्वर्ण अवसर है ।
आप पूछेंगे कि क्या लोक अध्यात्मवाद की बात सुनने के लिये तैयार भी है ? केवल मैके और टाल्बोट का लिखना ही पर्याप्त नहीं ? इस शंका के उत्तर में हमें अपना सिद्धांत याद आता है जिसमें कहा है कि नरकों की पीड़ा का चिन्तवन भी मानव को सत्य के दर्शन कराने में कारणभूत होता है । यूरुप के भौतिकवाद ने वहाँ के जीवन को दुखी बना दिया है - यह आज सारा लोक जानता है । अतः संतृस्त लोक यदि अध्यात्मवाद (Spiritual Progress) की ओर ऋजु होवे तो यह स्वाभाविक है । यहाँ केवल एक उदाहरण पर्याप्त है । अमेरिका में बैरिस्टर चम्पतराय जी सन् १९३३ में गये थे और उन्होंने Congress of world faiths विश्वधर्मसम्मेलन में कई
भाषण दिये थे, जिनके द्वारा उन्होंने सिद्ध किया था कि बाइबिल को शब्दार्थ में नहीं पढ़ना चाहिये, बल्कि उसके रहस्य को समझना चाहिये । उन्होंने बताया कि प्रत्येक जीवात्मा मूल रूप में परमात्मस्वरूप है । इसीलिये बाइबिल में परमात्मा का एक नाम 'TAM' भी है और उसमें हिंसा की शिक्षा भी श्रोतप्रोत है । उनके पश्चात् अमेरिका में उनकी शिष्या श्रीमती क्लीनस्मिथ ने School of Jain Doctrines भी चालू रक्खा था । वह स्कूल यद्यपि अधिक समय तक न चल सका, क्योंकि भारत से किसी ने उनके उत्साह को नहीं बढ़ाया । फिर भी इसका सुफल यह अवश्य हुआ कि वहाँ “I Am " Movement नामक एक संस्था को जन्म दिया गया, जिसकी शाखायें आज सारे संसार में हैं । मिसेज़ क्लीनस्मिथ लिखती हैं कि उसके सदस्यों की संख्या लगभग तीन करोड़ है । उनका विश्वास है कि वह स्वयं परमात्मरूप हैं । एवं प्रत्येक प्राणी में आत्मोन्नति करके परमात्मदशाको प्राप्त करने की क्ति मौजूद है । अतः हम सबको प्रेमपूर्वक रहना उचित है । यह लोग मांस-मदिरा, अंडे-मुर्गी नहीं खाते !
इन्होंने आत्मध्यान करने के नये नये साधन भी निकाले हैं । कहने का तात्पर्य यह कि विदेशों में सत्य की खोज नैसर्गिक रूप में हो रही हैं