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________________ २०.... * अहिंसा-वाणी * जैनियों का कर्तव्य होंगे, इसलिये हमें पर्यटन करना ऐसे अवसर पर हमारी जिम्मेवारी - होगा। देश विदेशों में जाकर वहाँ बहुत बढ़ जाती है। विवेक और साव- वालों के विचार और समस्याओं धानी से हम इस कर्त्तव्य को करें। को समझना पड़ेगा और उनकी हमसे ऐसी कोई गलती न हो जाय समस्याओं का हल किस तरह किया कि जिससे हमारे कार्य में बाधा आवे। जा सकता है इसका गहराई से हमें नाम का मोह त्यागना होगा। अध्ययन करना होगा। हृदय में उदारता और विशालता जैनसमाज के साधन लानी होगी। हमें काम करना है, इस महान कार्य के लिये हमें भगवान महावीर के तत्वों का प्रसार अनेक साधनों की जरूरत पड़ेगी। करना है । लेकिन काम करते समय उच्च और जनकल्याणकारी उदात्त दसरों की भावना का खयाल भी तत्वज्ञान. उसका निष्ठा के साथ रखना होगा। हम कोई ऐसी बात करनेवाले लगनशील कार्यआवेश में न कर बैठे कि जिससे कर्ता व प्रचारक, धन आदि साधनों किसी के दिल को, मान्यता को ठेस के बिना इस कार्य को हम नहीं कर पहुँचे। भाषा में नम्रता हो, हृदय में सकेंगे। मेरा इन दिनों जैन समाज दूसरे के हित की भावना रहे । शरीर के साथ जो विशेष सम्पर्क आया से दूसरे की सेवा बन पड़े और मन उससे मुझे तो विश्वास हो गया है में दूसरे की बात सुनने का धीरज कि जैन समाज के पास आज जो हो । हमें रूढ़िगत श्राचार की अपेक्षा साधन हैं उससे वह भारतवर्ष का ही मूलतत्वों के पालन की ओर अधिक नहीं. विश्व का भी कल्याण कर ध्यान देना पड़ेगा। कहीं से कोई सकता है। यह मेरी ही बात नहीं, अच्छी बात दीख पड़ने पर उसे ग्रहण काकासाहब कालेलकर जैसे विचारक करने की तैयारी होनी चाहिये। भी यही कहते हैं। जैनियों के पास दसरों के प्रति आत्मीय भावना महान् तत्त्वज्ञान है, महान त्यागी बढ़ानी होगी और अपनी अच्छी संतपरंपरा है, उच्च कोटि के विद्वान् बातों का परिचय देते समय वे दूसरी और विचारक हैं, कार्यकर्ता हैं और जगह कहाँ क्यों कही गई हैं इसका करोड़ों रुपये हरसाल धर्म के नाम भी हमें अभ्यास करना होगा । वाद- पर खर्च भी होते हैं। इन साधनों विवाद को टालकर हृदय जीतने का से आज जो काम हो रहा है वह यदि प्रयत्न करना होगा। संयम, विवेक, मिलजुल कर व्यवस्थित किया जाय . सावधानी और पुरुषार्थ के विना हम तो उनके तत्वों का विश्व में प्रसार हो अपने इस महान कार्य में सफल नहीं सकता है । संसार में सुख और शान्ति
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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