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________________ *श्री अखिल विश्व जैन मिशन के प्रथमाधिवेशन इन्दौर का भाषण* १६ के परिणाम स्वरूप विश्वयुद्ध होते अपने पराये का भेद और संख प्राप्ति हैं। इस व्यक्तिगत हिंसा के मूल में के मार्ग की भूल है। क्या है इसकी खोज होनी चाहिये । संसार लड़ाई नहीं चाहता पर लड़ाई समय की अनुकूलताके कारणों को नष्ट किए बिना वह दूर संसार के इतिहास में कहीं दिखाई नहीं हो सकती। नहीं पड़ता कि ऐसी शान्ति की चाह कभी पैदा हुई है। क्योंकि आज युद्ध के मूल में क्या है ? विनाश के साधनों की भायनकता बढ़ युद्ध के मूल में व्यक्तिगत स्वार्थ जाने से सभी विचारकों की यह ही दिखाई देता है। प्रत्येक व्यक्ति मान्यता हो गई है कि संसार में प्रेम, सुख चाहता है। उसको अपने स्वयं शान्ति, समता और परस्पर सहयोग के प्रति आसक्ति रहती है। उसकी लाना जरूरी है। सभी देशों में शान्ति यह गलत धारणा हो गई है कि उसके चाहने वाले अहिंसा के उपासक पैदा अपने तथा अपनों के सुख के लिये हो गये हैं। यही कारण है कि विश्व पराये का शोषण किये बिना चल जैन मिशन द्वारा प्रचारित साहित्य नहीं सकता। पराये के दुःख पर को विदेशों में बहुत रुचि से पढ़ा उनका सुख अवलम्बित है। इस जाता है। भगवान महावीर ने अहिंसा अपने-पराये के भेद में से असमता पर बहुत अधिक जोर दिया है। पैदा होती है, शोषण आता है और उनकी बातें संसार की समस्या को अशान्ति निर्माण होती है। उसे अपने सुलझाने में, प्रेम और अहिंसा का सुख के आगे दूसरे के दुःख, संकट प्रसार करने में सहायक और उपयोगी की पर्वाह नहीं रहती। अपनों के हो सकती हैं ऐसा विचारकों को लगे प्रति उसे राग होता है, प्रेम होता है, इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। दूसरों के प्रति तिरस्कार, द्वेष या आज जैसा अवसर अहिंसा प्रचार के अप्रेम । अपनेपन की सीमा भले ही लिये और मानवता का विकास करने कुटुम्ब, समाज, जाति या राष्ट्र तक के लिये मिल नहीं सकता, इसलिये बढ़ाई जाय, तो भी उससे परे जो हैं अहिंसा में विश्वास रखने वालों का उनके प्रति प्रेम नहीं होता, इस कारण कर्तव्य है कि वे अपनी पूरी शक्ति सबके प्रति वह समभाव रख नहीं लगाकर इस अवसर का लाभ उठावें। सकता। अपने और परायों के सुख जैनी भाई अपने आपको अहिसा के •के प्रयत्न में टक्कर होती है। इसे उपासक मानते हैं। वे इस अपूर्व टाला नहीं जा सकता। इसलिये इन अवसर का लाभ लेने में नही चूकेंगे, युद्धों के मूल में जो कारण है वह ऐसी आशा की जा सकती है।
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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