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________________ अंक ७ ] एR USUALURUSURYAL अग्नि । 2 En PRI ani दिगम्बर जैन | raaaaaaa ( लेखक:- बाबू ताराचंद जैन झालरापाटन सीटी ) मैं क्यों जलूं ? जगतमें विशालकाय गजेन्द्र से लेकर अति सूक्ष्म अमीबा तक समस्त प्राणी स्वार्थ के अर्थ प्रयन्त किया करते हैं। मुझे इस आत्म दहनसे क्या लाभ ? ब्रह्मण मुझे गुरु मानते हैं । परन्तु काम लेते हैं सेवक या दूतका । यज्ञमें मेरे द्वारा देवों और देवताओंको बलि पहुंचाई जाती है, मन्दिरोंमें धूप जला के देवस्थानोंमें सुगन्ध विस्तीर्ण करनेका काम मेरे सिर रक्खा जाता है और घरमें रसोई मेरेसे पकाई जाती है। यह झूठे भला है गुरु भक्तिका नमूना ! हिन्दु मुझे स्वयं पवित्र और पवित्र बतलाते हैं । और इस कारण मेरी और मेरी मिट्टीकी बड़ी दुर्दशा की जाती है । मृतक देह से मुझे छुअते हैं और मेरी राखको विष्ठा पर डालते हैं या बर्तन साफ करने में कम लाते हैं। यह भी कोई आदर है ? पारसी मेरी पूजा करते हैं । वे मेरे सेवक कहाते हैं । परन्तु बास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो मुझे प्रतिदिन २४ घंटे और सालभर में ३५९ दिन २९ घंटे उनकी चाकरी करनी पडती हैं । ये जो ताता आदि मिल चल रहे हैं वे मेरे ही तो कारण हैं। इनमें मुझे प्रति दिवस विवश होके सहस्रों निरपराध धातुओंका विच्छेदन करना, उनको गलाना जैसे अनेक क्रूर और भोपण कर्म करने पड़ते हैं। क्या यही देव भक्ति है ? [ २९ अंग्रेजी पढे लिखे बाबू और उनके अनुयायीगण सिग्रेटों को जलाकर धूम्रपान कर मेरी इज्जन तीन कौड़ीकी कर देते हैं । तमापत्रके प्रेमी मेरी देहको गलीच कर डरते हैं । यह अपमान नहीं तो क्या है ! कविगण और दार्शनिक पंडित मेरी क्रोध से उपमाकर मुझे बदनाम करते हैं । परन्तु क्या वास्तव में मैं बुद्धिहीन और क्रोधी हूँ ? वसुंबरा पहले मममय थो। यदि मैं दयाकर ठंठा नहीं होती तो ये गगनस्पर्शी हिमशिखर और शान्त शीतल विस्तीर्णम्बुधि कहां आते ? यदि मैं गंभीर और अश्वेश और भयंकर काननों को भस्मीभूत नहीं करती तो ये मनोरम पुरियें और हरे २ धान्य क्षेत्र अस्तित्वमें कैसे अते ? और ये बहु मूल्य और उपयोगी धातुओं की खाने कहां मिलती ? पृथ्वी और सूर्यकी उष्णता से ही अखिल प्राणी जगत प्राणको धारण कर रहा है । क्या यह मेरे बिना संभव होत ? अपार शक्ति रहते भी जन्तुजनित अपमानको धैर्य और शांति पूर्वक सहती हूं। क्या यह क्रोधीका लक्षण है ! हाँ तो क्यों मैं इस दुःखदाता कारार्थ अपने आपको नष्ट करूँ, लिए अपने आपको जलाऊँ ? संसारके उपइन कृतन्नों के शीवाई दीन जन सप्रेम मेरा अव्ज्ञानन करते हैं। क्या मुझे इनकी प्रार्थनाको अस्वीकार करना उचित है ? जब बिम्बोष्ठो चन्द्रमुखी कोमलांगी युवतियें चूल्हा जलाते समय कर पल्ल वोंमें पंखा लेकर या सुगंधित श्वाससे सुगंधित कर अश्रुपूरित कमल नेत्रोंसे मेरी ओर देखती
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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