SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक ७ दिगम्बर जैन । है ना एन्फ्ल्यू एं ना आदि बिमारियों के मरे अर्थात शत्रु दामों में तृण दबाकर जब शरण भारतवासियों के नाकमें दम है। इस साल पं नाबमें अता है तब उसे कोई मारता नहीं इस लिये प्लेग तो गत साल बगारमें है ना, किसी साल जहां ना ! हम गरीब गौवें तो दीन रात मुइमें सी. पी.में तो किसी साल बंबई में यों क्रमानुसार तृण लिये शरण चाह रही हैं सिवाय अमृत कहीं न कहीं रोग बना ही रहता है। समान दुध तथा बछडे देकर जनता का उपकार इसका कारण यज्ञका न होना ही है और करती हैं तथा हपमें यह पक्षपात नहीं कि यज्ञ तब ही हो सकेंगे जब गौ सेवा अच्छी हिन्दुको अमृत तुल्य दुध दें और यवन हमें प्रकार होगी मारते हैं अतः उन्हे विषयुक्त, हम तो सबको अकबर बादशाहके समय नरहरि कविने एक समान ही दूध देती हैं इस पर हमें क्रूर कसाई मर्मभेदी तथा मित्त कर्षक युक्ति की थी उसे मारते हैं यह सून बादशाहने गौ वध रोक सुनके बड़ा हर्ष होताई। .. दिया था। अकबरबादशाह के समय मुसलमान बहुत गौ पारे भारत वासियों ! गौ वध बंद करवाने के बध करते थे उसे बंद करानेके लिये नरहरि लिये तनमन और धनसे तैयार हुनिये क्योंकि कविने बहुतसी गौवोंका टोला एकत्रित किया उसके अमृत समान दृधसे शरीर बलिष्ट होकर और उन सब गौवों में जो एक सुंदर गौको आत्म बल बढ़ता है पर इस समय ऐसे अमूल्य आगे कर उसके गले में एक ताम्रपत्र बांधकर पदाथे दुग्धशनको छोड़कर चाह, सोडा वाटर, दरवारमें वह टोला पेश किया। जब बादशाहने लेमन आदि वस्तुओंका सेवन करने लगे हैं बहतसी गौवे दरबार में लाने का कारण नरहरि जिससे धर्मभ्रष्ट होनेके साथ २ शारिरिक कविसे पूछा तो कविने कहा, जहापना यह गौवें हनि होती है अतः गौरक्षा कीजिये तथा मापसे कुछ प्रार्थना करना चाहती है और वह अहिंसा व्रतको पालते हुए छोटे २ जीवोपर प्रार्थना इस ताम्रपत्र पर लिखी हुई है उसे भी दया करो। किसीको मत सताओ । हमारे का सेठ साहुकार बडे अहिंसा व्रती होकर भी मरित तृण गहहिं, ताहि जग मारत नहि कोई। गरीबोंके गले कलम रूपी छुरीसे तरासने में कुछ हम संतत तृण चरहिं, बचन उच्चरहिं दीन होई। मी कसर नहीं रखते। यह भी एक बड़ीसे बड़ी अमृत पय नहिं सुवर्षि, वासमहि थंभन नावही हिंसा है। अहिंसा का मतलब है किसी जीवको न हिन्दु हि मधुर न देतहि,कटु तुरक हि न पियावहि। सताना एतदर्थ मेरे निवेदन को पाठक हृदयमें नरहरि सुन शाह अकबर विनवत गौ मोरे करन। स्थान दग। कि हिं अपराध मारियत मुंहि, मुए हुं चाम __ शांति ! शांति ! शांति ! सेक्त चरन । मैं सुनाता हूं
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy