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________________ २६] - दिगम्बर जैन । [वर्ष १७ . एक सेर, तब सुलतान इब्राहीम लोदीके वक्त एक टर जमीदार मुंसिफ जज आदि गृहस्थों के यहां रुपयेका पांचसेर था। इसी प्रकार अकबरबाद अवलोकन कीनिये दम दम पांच पांच घोड़े शाह के वक्त आठ भाने मन गेहूं, चावल दो बन्धे मिलेंगे। अगर यह नहीं तो दो चार बकरी रु ये मन, दाल छ आने मन, गुड़ देढ़ रुपये तथा कुत्ते तो अवश्य मिलेंगे परन्तु गौका पता मन, नमक डेढ़ आने मन भादि। मतलब कि उस नहीं। यदि उन्हें गौ पालनके विषयमें प्रश्न किया जमाने में सब वातु सस्ती थी। नहांपर बादशाहके जाय तो यह कहके टाल देते हैं कि हमें गौ समय एक युरोपियन बिलायतसे न्दुिस्थान पालने का शौक नहीं। हाय भारतवर्ष ! तेरे आया था वह दिखता है कि यहां एक आदमी श्रीमंत पुत्रोंके यहां सैकड़ों गाड़ी घोड़े मोटरें एक मानेमें अपना उदर पोषण र रता है। तथा साइकलें रखने के लिये स्थान परन्तु जो इसी प्रकार धीरे धीरे वस्तुओंका भाव बढ़ता अनेक रोगोंसे बचाती हैं, शरीरको बलिष्ट करती गया और आज यहां तक नैवत भा पहुंची हैं, बुद्धिको बढ़ाती हैं ऐसी गौ माताके लिये कि एक मनुष्य अपना गुजर दस रुपये में मुश्कि. स्थान नहीं । अफसोस ! सद् अफसोस !! लसे करता है । घी छ छटाक एक रुपये का निप्त भारतमें कृष्णनीसे योगी गौ सेवा बिकता है । पाठको ! यह सब गौ वधका ही करते थे, उप्त भारतमें सभ्यताकी डींग मारनेकारण है इस लिये गौरक्षा करना हिन्दु मात्रका वाले बड़े २ पदाधिकारी कुत्ते बिल्लियों की सेवा परम कर्तव्य है। भावान कृष्ण गीतामें वैश्योंके भले ही करले परन्तु गौ माताकी सेवा कदापि कर्म बताते हुए कहते हैं नहीं करेंगे । क्योंकि अभी भारतीय बन्धुओं का कृषि गौरक्ष वाणिज्यम् वैश्य कर्म ध्यान गौ सेवाकी ओर विशेष नहीं लगने का स्वभावजम् । कृषि गौरक्षा और वाणिज्य कारण यही है कि उसके दूधके लाभोंपर अभी ये तीन वैश्यों के कर्म हैं। इन तीनों पैकी वैज्ञानिक रूपसे हट नहीं गई है। इसके अतिवाणिज्य का मूल कृषि तथा गौ रक्षा है और रिक्त गोसे भारत नहीं बल सारी सृष्टि का दोनों में भी कृषिका मूळ गौरक्षा है। उपकार होता है गौमाता तृण भक्षण करके दुध मूलो नास्ति कुतः शाखा । नव मूक ही न उत्पन्न करती है । दृषसे घृत और घृतसे यज्ञ रहेगा तो छिन्ने मूले नैव शाखा व पत्रम् तथा यज्ञसे मेघोत्पत्ति होकर वृष्टि होती है । शाखा और परसव रूपि खेती (कष ) और वृष्टसे सन्न पेदा होता है निमसे सारा संसार वाणिज्य कहां रहेगे । जब वैश्योंकी अवनति पलता है इसलिये गीतामें कहा है किहुई तो ब्रह्मण क्षत्रीय किस तरह बच सकेंगे यज्ञाद्भवति पर्जन्यो पर्जन्य दन्नमभवः इस लिये देशकी अवनतिका कारण गौ सेवका पहिले जमाने जैसे अब यज्ञ होकर वायु न होना ही है। शुद्धि दूर रही परन्तु चुरुट बिड़ी हुक्का तथा माजकल बड़े १ सेठ साहुकार वकिल बैरि- मीलोंके धुएंसे ऐसी वायु बिगड़ती है कि प्लेग
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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