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________________ अंक ७ ] (६) आपने जो कुछ किया बयान । सुना मैंने उसको घर ध्यान ॥ किन्तु मैं भी कुछ जतलाता । तुम्हारी भूलें बतलाता ॥ (19) इसे मैं भी करता स्वीकार | आपका धर्म अहिंसा सार ॥ अहिंसा कहते हैं किसको । आप ही बसका मुझको ॥ दिगम्बर जैन । (<) यदि नहीं आप बताते हैं । तो फिर क्यों ! उलटे जाते हैं । हृदयको जरा थामलो तुम । अक्कसे जरा काम को तुम ॥ ( ९ ) ! अपने प्राण दुखाना है । न परके प्राण सताना है | दयाका भाव दिखाना है । स यही कहना है ॥ ( १० ) बात यह हमने भी जानी । आप नित पियं छान पानी || रात्रि भोजनके त्यागी हो ! अहिंसाथ अनुगगी हो || (32) रात्रिको क्या नहिं खाते हो । साफ क्यों नहिं बतलाते हो ॥ सिर्फ क्या बनाज तन देना | हुआ विशयोजन राम देना || - [ १७ खाते ! (१२) मिठाई कंदमूल कहो हिंसासे बच जाते ॥ बड़ी पापड अरु बिया अचार । वर्षभरी करते स्वीकार ॥ (१३) पर्व हरी वस्तुका त्याग | करोड़ो कर धार्मिक अनुराग ॥ कावते घोटकपर बहु भार । उदरभर देते नहीं महार (१४) कहते हो ॥ करते हो भरते हो ॥ कलह भापसमें करते हो भाईसे भाई मुकदमा बानी गवाही झूठी (११) सत्य व्यापार छोड दीना । झूठका मारग गइ लीना ॥ करटकी पइिन गले में माळ | खूब ही ठगा पराया माल ॥ (१६) बताओ इन कामों में क्या ? नहीं होती है हिंसा क्या ? इसी पे मेरा कहना है । जिसे तुमको महलेना है ॥ ( १७ ) यदी हो दया धर्मधारी । छोड दो विपरीतता सारी ॥ धारकर सत्य हिंसाको । " प्रेम " छोडो सब हिंसाको || प्रार्थी - प्रेमचंद पंचरत्न भदावर प्रा० दि० जैन वि० भिण्ड
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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