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________________ दिगम्बर जैन । अंक 4] वर्तमान में आयुर्वेद की आवश्यक्ता और उसकी उपयोगिता । वर्तमान संसार में जब हम सारे भारतवर्षकी समस्त प्रजापर दृष्टिपात करते हुए, उसकी आगामी आकांक्षाओं को देखते हैं और प्रजाकी marathi अपने कर्णगत करते हैं, तो चारों तरफसे स्वदेशी शब्दकी ही तुमुलध्वनि सुनाई पड़ती है-याने प्रम महांतक सब प्रकारकी देशी वस्तुएं मिलें उन्हींका ही उपयोग करना चाहती है और विदेशी वस्तुका त्याग करना चाहती है। सो वास्तव में ऐसा होना ही चाहिये क्योंकि यह तो प्राकृतिक नियम है कि जहांका - मनुष्य पैदा हुआ होता है, उसी देशकी बनी वस्तुओंसे उसकी प्रकृति सुखमय रह सक्ती है । अतएव भारत वासियों को भारतवर्षकी बनी हुई वस्तुओं की अभिलाषा होना तो स्वाभाविक ही है। अब यदि ऐसे सुअवसरपर ( जब कि समस्त भारतवर्ष समस्त प्रकारकी स्वदेशी वस्तुओंका भिलाषी हो रहा है । ) हम लोग न चेतेंगे और भारत की मांग पूरी न करेंगे तो प्रजाको परवश होकर विदेशी वस्तुओंसे ही अपनी मांग पूरी करना पड़ेगी । अतएव हमारा इस समय पहिला फर्ज है कि जिस किसी प्रकार भारतव की मांग पूरी करें और अपना पैसा अपने ही घर में रक्खें- दूसरोंके हाथमें नहीं दे देवें । हमको यहां पर यह विचार करना है कि भारतवर्ष में किस वस्तुकी अत्यन्त जरूरत है जिसकी कि हम शीघ्र पूर्ति करें। वह हैं [S १ औषधि २ कपड़ा, ३ लोहे का सामान, ४ खिलोना वगैरह । पाठक महाशयो ? पहिले जमाने में यही भारतवर्ष अपने देशकी मांग पूर्ण करते हुए और २ देशोंकी मांगें पूर्ण करता था, किन्तु वर्तमान में वही भारतवर्ष अपने देश की ही मांग पूर्ण न करके पर मुखापेतो बन रहा है इसका कारण अतिरिक्त एक आवश्यके और क्या हो सक्ता है ? अस्तु पाठक महाशय ? उपर्युक्त चारों विषयों में से मैं सिर्फ पहिले विषय अर्थात् औषधिका ही व्याख्यान कथा, शेषका नहीं क्योंकि "शरीस्माद्यं खलु धर्मसाधनम्" इस ऋषिवाक्य के अनुसार जीवमात्रको शरीरकी रक्षा करना पहिला कर्तव्य है और शरीस्के स्वस्थ रहने से ही धर्म की सिद्धि हो सक्ती है जो अन्यथा नहीं । es हमको यहां औषधिकी आलोचना करते हुए यह भी विचार करना है कि हम भारत वासियोंका अच्छा स्वास्थ्य स्वदेशी औषधियोंसे रह सक्ता है या विदेशी औषधियोंसे, क्योंकि संप्रति हमारे समक्ष यहीं समस्या उपस्थित है और दोनों पक्षोंपर विचार करके जो पक्ष हमारे अनुकूल हो हमारे धर्मका रक्षक हो - हमारे घनका रक्षक हो उसी पक्षको स्वीकार करें । पाठकों ! वास्तवमै सुक्ष्मदृष्टिसे विचारा जाय तो यही सिद्ध होगा कि जो मनुष्य निख देशकी भूमिमें उत्पन्न होकर जिस देशकी व्यवहवा में परिपालित हुआ है उस मनुष्य का स्वास्थ उसी देशकी उत्पन्न हुई औषधियोंसे ही निरोग रह सक्ता है अन्यथा नहीं। जैसे कि जलमें उत्पन्न हुई मछली जल ही में स्वस्थ रह सक्ती है न कि , :
SR No.543196
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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