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________________ दिगम्बर जैन - मंक ५ थलमें । इत्यादि-इसलिये यही सिद्ध हुआ कि ४-उदाहरण-पेटके दर्दपर अंग्रेजी दवा हम मारतवासियोंको विदेशी औषधी स्वास्थप्रद कौलिकक्योर (पेटका दर्द नाशक) १ शीशीका नहीं है-प्रत्युत स्वदेशी औषधी ही हमारे दाम ॥ है-किन्तु मायुर्वेद शास्त्रमें )। पैसेका स्वास्थ्यको मुखपद है । दूसरा कारण एक यह शुद्ध कुचला क्षार चूर्णके साथ खानेसे ही दर्द भी है कि विदेशी औषधियों में हमारा पैसा भी साफ हो जाता है इत्यादि। सभी प्रायः अंग्रेजी अधिकांश खर्च होता है, क्योंकि हम प्रत्यक्ष औषधियां ऐसी हैं जिनकी की वीस२ गुणी देखते हैं कि जितने दाममें विदेशी औषधिसे चालीसर गुणी कीमत है, जिनका व्याख्यान मैं १ रोगी अंच्छा हो सक्ता है-उतने ही दाममें यहां पर नहीं कर सक्ता हूं। स्वदेशी औषधीसे कमसे कम २० रोगी सरलता यह तो बात हुई द्रव्य बचानेकी अपेक्षासे । पूर्वक शीघ्रतया अच्छे हो सक्ते हैं, जिसके ? अब सोचिये जरा धर्मपर जिसकी बदौलत कि उदाहरण मैं पाठकोंके समक्ष उपस्थित करता हूं। हम अपने सबके सिरमोर कहते हैं। १-उदाहरण मामूली फसली बुखारपर पाठकों ? धर्म ही एक वस्तु है कि जिसकी • अंग्रेजी दवा मलेरियाक्योर ( फसली बुखार बदौलत यह संसार स्थिर है-यदि कुछ मुख नाशक ) १ शीशीका दाम ||-) है-किन्तु है तो एक धर्महीके रहनेसे । यदि शांति है हमारे भायुर्वेदी शास्त्रमें फसली बुखारमें )॥ तो एक धर्महीके रहने से । यदि प्रेम है तो धर्म पैसेका काढा ही काफी है-याने गिलोय, धनियां, हीके नातेसे । यदि प्राणीमात्रका जीवन है तो नीमकी छाल, पद्माक चंदन, लालचंदन ये पाचों सब धर्म मात्रके सहारेसे। जब इस प्रकार धर्मका औषधी बनारसे ॥ पैसे में ले भावे और काढ! ही सब जगह सम्बन्ध है तब धर्मकी रक्षा करना बनाकर ४ समय पिलानेसे बुखार चला जाता है हमारा पहिला कर्तव्य है अर्थात् हमको यहापर २-उदाहरण, मामूली खांसीपर अंग्रेजी दवा यह विचार करना है कि हमारे धर्मकी रक्षा कफश्योर ( खांसी नाशक ) १ शीशीका दाम विदेशी औषधीसे हो सकी है या स्वदेशी 1:-) है, किन्तु हमारे यहां । एक पेसेकी औषधीसे । बस दोनों में से जिससे धर्मकी रक्षा हो दवाईमें खांसी चली जाती है- भटाकटाईका काढा वही ग्राह्य है और जिससे धमकी हानि हो बनाकर उसमें थोडासा पीपलका चूर्ण डालकर वही त्याज्य है। अतएव "अहिंसा परमोधर्मः" पिलादो बस खांसी साफ हो जायगी। यह जो धर्मका लक्षण जितको कि समस्त भार ३-उदाहरण, वदहज्मीपर अंग्ने नी दवा डिस- तवासी मानते हैं-इस धर्मके लक्षणके अनुप्सार पेप्सीयाक्योर ( वदहज्मीनाशक ) १ शीशीका तो विदेशी औषधी त्याज्य हैं जौर स्वदेशी दाम ॥) है-किन्तु आयुर्वेद शास्त्रमें क्षार चूर्ण औषधी ही ग्राह्य है, क्योंकि फीसदी ७५ या लवणभास्कर ही काफी है, निसकी ॥ पैसेमें विदेशी औषधी ऐसी हैं जिनमें कि प्राणियों के कमसे कम ८ खुराक चूर्ण बनेगा। मांसका संसर्ग है।
SR No.543196
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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