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________________ "Digamber Jain" Regd. No. B. 744. और आर्य समाजकी तो आज जैसे बन पड़ी है; इने गिने सिक्खों की सीख जातीयताका कैसा आदर्श रख रही है, मगर जैन समाजकी गंगा उलटी ही बह रही है / उसकी पाचन-शक्ति विनष्ट होचुकी है। यदि अब हम जीना चाहते हैं ? PMA जैसा कि श्री महावीर जयन्तीकी हलचलसे परिलक्षित होता है, तो कमर कसकर कर्तव्य-क्षेत्रमें अवतीर्ण होना पड़ेगा। अपनी आन्तरिक और बाह्य विरोधी शक्तियोंसे डट 16 कर मोरचा लेना होगा। अब समय नहीं रहा कि सब अपनी 2 ढपली और अपना 2 राग अलापकर अपना अस्तित्व कायम रखा जासके / विशाल जैन जगतके निर्माणके लिए हमें रमपने हृदयोंको विशाल बनाना चाहिये / व्यक्तिगत स्वार्थियोंकी स्वार्थसाधना वीर-शाप्सन की प्रभावनामें बाधक नहीं होसकती। श्री महावीर भगवान, दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी सबके समान पूज्य हैं / उनके 8 वियोगके पश्चात् ही हम अभागे प्रथक श्रेणीवृद्ध होगये हैं। आओ! जागृत जैनसमाजके आधारभूत वीरो, आओ !! बिछड़े भाई वीर भगवान के नामपर गले मिलने का आयोजन करें। भगवान वीरके समयकी ओर बढ़नेके लिए-ऐक्यसुत्रमें बँधनेके लिए-फिर आगे बढ़े। यही उपयुक्त समय है जब कि जैन मात्र एक होकर श्री महावीर जयन्ती मनावें / और प्रत्यक्ष करदें कि मतभेद होते हुए भी हमारे हृदय एक हैं और अहिंसा धर्मके प्रचार के लिए हम सब एक ही हैं / इसके लिए ऐमा संगठन वांछनीय है जहां दिगंबर, श्वेतांचर, स्थानकवाली समस्त जैन बांधव प्रेमसे मिलकर जातीयता और जैनधर्म प्रचार की चेष्टा कर सकें। श्री भारत जैन महामण्डल-ही एक ऐसा संगठन है जिसके द्वारा हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। इसके उद्देश्यः 1. जैन समाजकी एकता व उन्नति / 2. जैनधर्मकी रक्षा व प्रचार हैं अतएव सर्वाङ्गापूर्ण जैन धर्मकी छाप संसारके हृदयपर लगाने तथा जैन समाजकी स्वत्वरक्षाके लिए यह आवश्यक है कि सब सम्प्रदायके जैन बंधुओंकी सम्मिलित शक्तिसे श्री भारत जैन महामण्डलकी शाखाएँ स्थान 2 पर खोली जाय।। वीर भगवानके भक्तों ! आओ-विशाल मैन जगतके निर्माण में सहायक होकर सच्ची महावीर जयंती मनाने के अधिकारी बनो ! श्री भारत जैन महामण्डकके विषयमें विशेष जानने के लिए निम्न पनेपर पत्र व्यवहार कीजिये: चेतनदास, बी० ए० प्रधान मंत्री, भारत जैन महामंडल, हेडमास्टर, गवर्नमेन्ट हाईस्कूल- मथुरा / "जैनविजय " प्रिन्टिग प्रेस खपाटिया चकला-सूरतमें मूलचंद किसनदास कापड़ियाने मुदित किया भार "दिगम्बर जैन" आफिस, चंदावाड़ी-सूरतसे उन्होंने ही प्रकट किया।
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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