SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ME श्री महावीर जयन्ती १७ एपिल सन् १९२४ ई० को। वीर शासनकी पताका फहरा दो। समय सदा एकसा किसीका नहीं रहता । उत्थान, पतन, उन्नति, भवनतिका चक्र 'सदेव घूमता ही रहता है। किन्तु हमारी जैन समाजके ह्रासकी गति विधि ही निराली है। सबसे हाम मार्गपर इसने कदम रक्खा है, यह गिरती ही जा रही है । दशा यह है कि उसके मस्तित्वके अभावका प्रश्न सन्मुख है और उसे जैसे उसका पता तक नहीं है। -मिरना बुरा नहीं । जो चढ़ते हैं वे ही गिरा करते हैं। जो गिरते हैं वे ही बढ़ा करते हैं। किंतु यदि गिरा हुमा व्यक्ति अपने विगत गौरवका विस्मरण करदे, वह अपनी पतित अवस्थामें ही उद्धार समझ ले, तो उसका उत्थान असम्भव है । उसका पतन चरम सीमा तक हो चुका समझना चाहिये । दुर्भाग्यवश हमारी जैन समाज की अवस्था भी ऐसी ही हृदय-विदारक होती जारही है । भानसे ११५० वर्ष पूर्वकी बात है । भगवान महावीर मपने दर्शनोंसे धरणीतकपर शांवि-सौख्य वृष्टि कर रहे थे । प्राचार्य मुनिवृन्द बिहारकर ज्ञानामृत बरषाके साथ साथ धर्म-प्रभावना करते थे । सारे संसारमें हिंसाधर्मकी पावन-पताका फहरा रही थी। हां, हां, वीर शासनकी जयजयकारसे वायुमंडल गूंज रहा था। उसके पश्चात हमारे पूर्वनोंने धर्म चारित्रको पाला, और साधिकार वीर जयंती मनाते रहे। ___ पतनका प्रारम्भ हुआ और जैन समाजमें भेद-भावकी वृद्धि हुई । बात यहांतक बढ़ी कि एक सम्प्रदाय दुसरे सम्प्रदायके परम शत्रु बनते गए और आज वे धर्मके नामपर निस अंतःकलहके रक्षक बन रहे हैं उसका विचार सच्चे धार्मिकके हृदयमें गहरी चोट पहुंचाये विना नहीं रह सकता। देखें कहीं पूर्वज हसारे स्वर्गसे आकर हमें । भांसू बहावें शोकसे इस वेषमें प्राकर हमें ॥ . इधर हम भेदभावकी चक्कीमें पिस रहे हैं । उधर समय अपने तीक्ष्ण प्रहार करने पर तुला हुआ है । जैन समाजका मस्तित्व उसका महत्व और अधिकारकी स्वीकृति तकमें क्या सरकार क्या कांग्रेस-हर स्थल पर उपेक्षा की जारही है। और यह हमारा अपना दोष है कि हम इस बेवसीकी दशासे छुटकास पाने के लिए बेदार नहीं होते। - वह जातियां जिनका उत्थान असम्भव समझा जाता था, आन दौड़ लगा रही हैं। भेद-भावका क्रीणास्थळ हिंदू :माज सजग होगया है। संख्या वृद्धिके महत्वको उसने समझ लिया है । यवन अपनी उन्नतिके लिए कितने बेदार हैं ! संगठित ईसाई
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy