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________________ दिगंबर जन । ONOJएक Vा विदधाति नरस्प ऐषः । अर्थात् इस विशाल क्रोधका प्रताप विश्वमंडल में इस आत्माका जितना नुकप्तान कोव . करता है, उतना न तो क्रोधित हुए राना और महस (ले०-६० चांदमल काला विशारद पचार ) शत्रु करते हैं। न हरि हस्ती और सदिक क्रोधरूपी उग्र वैरी संयमभाव, सन्तोषभाव, ही कर सकते हैं क्योंकि ये तो अधिकसे अधिक निराकुलता नष्ट करने में अग्निके महश है। यदि हानि कर सकते हैं तो एक मामें केवल अर्थात् जिस तरह अग्नि अखिक वस्तुओंको प्रोहीका घात कर सकते हैं पर यह क्रोध एक क्षणमें बहस तहप्त कर डालती है, उसी तो संसाररूपी कानन को दग्ध करनेवाले धर्मका तरह यह ऋध मी सैंकड़ों व सहस्रों वर्षोंसे नाशकर जन्मनन्ममें अनेक तरहसे दु:खित उपार्जित की हुई पुण्य सामग्रीको एक क्षण में करता है । तस्मात् प्रिय बन्धु भो! ऐसे क्रोधको नष्ट कर देता है। द्वादश वर्ष किया हुआ दीपा. सर्वतया छोड़ देना प्रत्येक जीवका कर्तव्य है। यन मुनिका घोर तप एक क्षण क्रोधके प्रतापसे क्योंकि जबतकहृदय पटल में यह कोष विरा. बिलीन हो गया । सज्जनो ! चिरकालसे उत्पन्न कालो पत्र जमान है तबतक चाहे व्रत, यम, नियम, जा हुआ प्रेम इसी क्रोधरूपी पिशाचसे एक मिनि- अनशनादिक तप कितने ही क्यों न करो किंत टमें नष्टत्वको प्राप्त हो जाता है। प्रिय वाचक ये सब क्षमाके अभाव में निरर्थक हैं। वृन्द ! क्रोधी मनुष्यसे मस्त लोक बैर-विरोघ प्रिय पाठकगण ! इस विशाल भूमण्डल में करने लग जाते हैं। प्रगाढ़ प्रेम करनेवाला मित्र क्रोधके सदृश कोई प्रबल रिपु नहीं है। क्योंकि भी दुश्मनी करना प्रारम्भ कर देता है । सज्जन देहको धारण करनेवाला शत्रु तो अधिक मधिक पुरुष मुँहसे भी क्रोधी मनुष्यसे भाषण नहीं गाली देना, मारना, प्राणों का घात कर सका करते हैं। क्रोधी मनुष्यमें हिताहित व पूज्यापूज्य है किंतु क्रोधरूपी शत्रु तो मित्रताका नाश बुद्धि नहीं रहती। स्त्री, पुत्र, पिता, माता, कर देता है, दुर्बुद्धि उत्पन्न कर देता है, मित्र वगैरह प्रिय बन्धुओंको यह क्रोधरूपी दुर्भाग्यको खींचकर पास ले आता है । प्राणोंसे राक्षस मनुष्यके हृदयमें प्रविष्ट होकर मरवा प्यारी कीर्तिको नष्ट कर देना है। यद्यपि क्रोध. डालता है। इसी क्रोधके प्रतापसे यह मनुष्य का आधिपत्य प्रत्येक जीवके हृदयस्थानमें : भूमृत व मंदिरसे कूप व कूपिकाओं में गिरकर मौजूद है तथापि उसको परित्याग करके क्षपा आत्म-हत्या कर बैठता है । क्रोवकी बनहसे धर्म रूपी ऐश्वर्यको प्राप्त करना मनुष्य मात्रका भृष्टी दुराचारी निर्दयी असत्यमाषी ईर्षी घृणी उत्कृष्ट कर्तव्य है। क्योंकि देश, काल और असंतुष्टी हो जाता है। कहा है कि दोषं न तं नृपवयो- क्षेत्रमें सर्वया हितकारी क्षमाको धारण करनेसे रिपवोऽपि रुष्टाः कुर्वति केसरि करींद्र महोरग वा। जो फल प्राप्त होता है वह जीवों को तीर्थयात्र', धर्म निहत्य भाकानन दाववहिं यं दोषमत्र जिन विंचामिषेक, जप, होम, दया, उपास,
SR No.543190
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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