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________________ (१०) क्षेपक श्लोक चुन २ कर इस रूढ़ि के समर्थन या विरोध के लिये आपके सामने रखना अनावश्यक है। ऐसे प्रश्नों का निराकरण सामान्य बुद्धि से करना उचित है। 'आत्मवत् सर्व भूतेए' यह सब धर्मों का मुख्य सिद्धान्त है। जैनशास्त्र 'मिति में सव्व भूयेषु' के सिद्धान्त के परिपालन की आज्ञा देता है । बल्कि सर्ग प्राणियों के प्रति बन्धुत्व दर्शाने का आदेश करता है । उसी प्रकार के मूल नीच वर्णों के जैन मुनियों के दृष्टान्त देकर अछूतों को अपनाने की आज्ञा करता है। क्योंकि जैनों में जाति यानी जाति-भेद नहीं है । जैनधर्म समानता का उपदेश करता है । सामाजिक एवं धार्मिक उपरान्त, राजनैतिक दृष्टि से भी, विचार करते हुये उनका उद्धार करने की आधुनिक युग में परम आवश्यकता है। भारत वर्ष में छह करोड़ अछूत हैं और उनको पर-धर्म में जाते हुये रोकने के लिये स्वधर्म में मिलाने की खास जरूरत है। सच्चा अछूत वही है जो मनसे मैला यानी कपटी है, दूषित है और कर्म से भ्रष्ट है। मन, वचन एवं शरीर की पवित्रता रखने वाला किसी भी 'लेबिल' ( Lebel ) वाला मनुष्य परमात्मा के दरबार में, नीडरता एवं निखालसता से प्रवेश कर सकता है । इस दृष्टि से कोई भी कहलाने वाली अस्पृश्य जाति जैनों के आचारविचार ग्रहण करके जैन-सम्प्रदाय में दाखिल हों, तो उन्हें मंदिर-प्रवेश का भी अधिकार मिल जाय यह किसी प्रकार अनिष्ट नहीं है । - हाल में, कुछ अर्से से, तीर्थों के झगड़े ने हमारे समाज में भयङ्कर स्वरूप धारण किया है । श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के बीच गैमनस्य उत्पन्न हो, वैर कलह हो, कलेशानि से राज दरबार का आश्रय लिया जाय और उसके पीछे लाखों रुपये बर्बाद करने पड़े, यह बात किसी भी पक्ष के लिये हरगिज शोभास्पद नहीं है। इस प्रकार के आन्तरिक मत भेदों को, दोनों पक्षों के समझदार पंचों ने एकत्र मिला कर शान्ति से निबटारा करना चाहिये और धर्म को जाहिर में बदनामी से बचा लेना चाहिये। जैन धर्म का स्याद्वाद का सिद्धान्त सब धर्मों में उत्तम प्रकार का माना जाता है। उसका साहित्य उच्च कोटिका है और हरेक क्षेत्र में अच्छी तरह प्रगति पाया हुआ है। तथापि आज अर्धदग्ध परधर्मी उसके तत्त्व को बिना समझे अपूर्ण अनुभव से जैन साहित्य को जनता के समक्ष विकृत स्वरूप में उपस्थित करते हैं। इस प्रकार वे जैन धर्म के अद्वितीय, अमूल्य एवं अनुपम सिद्धान्तों की हँसी उड़ाते हैं । इसका प्रतीकार करने की सत्वर आवश्यकता है बल्कि रचनात्मक दृष्टि से, जैनेतरों के सामने धर्म और समाज को उनके सच्चे स्वरूप में समझाने के लिये सरल भाषा में पुस्तकें प्रकट करने की खास जरूरत है। इन सब बातों का खयाल करने से हमारे सर्व-स्वधर्मी बन्धुओं की मानसिक परिस्थिति किस प्रकार की है,इसका चित्र दृष्टि के समक्ष खड़ा होता है । मुख्यतः दीक्षा प्रकरण की गैर समझ के परिणाम स्वरूप हमारे स्वजाति बन्धु दो विभागों में बँट जायँ, यह
SR No.541501
Book TitleMahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC P Singhi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1933
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size18 MB
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