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(११) अत्यन्त दुर्भाग्य की बात है । ऐसी बातों में ममत्व या दुराग्रह को स्थान हरगिज नहीं देना चाहिये । यह हमारा गुप्त प्रश्न है और उसका निपटारा आपस में ही होना चाहिये । शुद्ध हृदय से और पारमार्थिक दृष्टि से एकत्र हो, उसको हल करना चाहिये । जिससे भागवती दीक्षा को जगत् के समक्ष उज्ज्वल स्वरूप में दिखाने में विलम्ब न हो।
ऐसो २ अनेक सामाजिक एवं धार्मिक विडम्बनाएं सत्वर नायूद हों और भविष्य में उनका पुनर्जन्म न होने पाय, इस दृष्टि से सुधारणा के संबंध में सर्व धर्म-प्रेमी और समाज-हितचिन्तकों को खयाल करना चाहिये । हमारे समाज को जो प्राणघातक व्याधि लागू हुए हैं उनको नाबूद करने के लिये एकता एवं शिक्षा की खास आवश्यकता है। आधुनिक समय में, समाज के भिन्न २ अंगों में, जिस प्रकार की ईर्षाग्नि, वैमनस्य एवं क्लेश का दावानल सुलग रहा है, उसको बुझाने के लिये संगठन और एकता के सिवा दूसरा कोई राजमार्ग नहीं है । और वह मार्ग सच्ची शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हो सकेगा। 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' 'ज्ञान विहीनः पशुः', 'नहिं ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' ऐसे २ अनेक सूत्रों से हम को क्या उपदेश मिलता है ? श्रीमहावीर ने बताये हुये ज्ञानमार्ग और उसकी महत्ता की अवगणना करने से हमारे में जिस प्रकार की अधोगति
और जड़ता ने जड़ जमा ली है, उसको उखाड़ने के लिए और ज्ञान की उसके असल स्थान पर प्रतिष्ठा करने के लिये भगीरथ परिश्रम की आवश्यकता है हमारा समाज शिक्षा में कितना आगे बढ़ा हुआ है, कितने विद्यार्थी गण प्राथमिक, माध्यमिक शालाएँ एवं कालिजों में शिक्षा पा रहे हैं, उनके आँकड़े मैं आपके सामने नहीं रखना चाहता; क्योंकि यह बात आपको भली प्रकार विदित है। विद्या के अभाव से हमारा विकास किस प्रकार अटक रहा है, हम कितनी शोचनीय अवदशा की ओर घसीटे जा रहे हैं और उसके परिणाम स्वरूप समाज को कैसी दुःखद परिस्थिति उपस्थित हुई है, उसकी आपको याद दिला रहा हूँ।
भारत आज अकेला नहीं है । उसको दुनिया की अन्य प्रजाओं के साथ खड़ा रहना है । उसे अपना प्राचीन गौरव मय स्थान पुनः प्राप्त करना है उद्योग धंदे के विकास के लिये सुधरे हुए देशों के साथ उसको संबंध रखना है । उनके ऊपर अपना प्रभाव कायम करना है उसके लिये और उन २ देशों में धर्म के प्रचार के लिये शिक्षा की बड़ी भारी आवश्यकता है । आधुनिक शिक्षण-पद्धति दोषपूर्ण है यह सब कोई कबूल करेंगे, उसमें सुधार की बड़ी आवश्यकता है। इतना होते हुए भी शिक्षा स्वयं आवश्यक एवं उपयोगी है इसमें किसी भी व्यक्ति के लिये शंका का स्थान नहीं है । शिक्षा दो प्रकार की होनी चाहिये। व्यावहारिक और धार्मिक ।व्यावहारिक शिक्षा में शारीरिक एवं मानसिक विकास का समावेश होता है । आजकल के जैन बालकों के फीके, निस्तेज चेहरे और कमजोर शरीर देखकर हमको लज्जा का अनुभव होना चाहिये । 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः” और “शरीरमाां खलु धर्मसाधनम्" इत्यादि सूत्र हमको उपदेश देते हैं कि