SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १ ४-५.३ ૨૧ __ जो मनुष्य देवद्रव्य की आवक को भांगता है, मंजूर किया हुआ धन नहीं देता है या भांगने वाले और नहीं देने वाले की उपेक्षा करता है वह भी संसार में रुलता है । देखिये ! इस हरिभद्र सूरिजी के वाक्य से देवद्रव्य की आवक को मांगने वाले की क्या हालत होती है ! जो लोग कल्पना फिराने का कहते हैं, उनको समझना चाहिये कि जो लड्डू वगैरा मन्दिर में नैवेद्य तरीके धराये नहीं है, सिर्फ मन्दिर में ले गये हैं वैसे लड्डू वगैरा को वे कल्पनावादी क्या लेकर खा सकेंगे ? कभी भी कहीं. जिनेऔर महाराज के मन्दिर में बोली बोलक्तर उसका द्रव्य श्रावक के उपयोग में लाना, यह तो भगवान की आशातना को जानने वाला कभी भी मंजूर नहीं करेगा, . क्योंकि शास्त्रकार महाराज ने तो भगवान की दृष्टि में अशनादिक सर्व भोग्य वस्तु का निषेध किया है, देखिये वह पाठ दिट्ठीए वि जिणिदाणं सव्वमसणाइ भोगवत्थूणि । णो परिभुत्तुं जुत्तं........... .............॥८॥ याने भगवान की दृष्टि के विषय में भी सभी अशनादि भोग्य वस्तु का किसी भी तरह से परिभोग करना लायक नहीं है। ___ अब सोचना चाहिये कि जब भगवान् की दृष्टि में भी अशनादिक का भोग नहीं होवे तो पीछे भगवान के समक्ष या उमके निमित्त बोली करके श्रावक या साधु को खाना या उपयोग में लेना कैसे लाजिम होगा ! और यह बात तो सबको मान्य ही है कि मन्दिर में घुसते ही निस्सिंही कहना चाहिये और उस निस्सिही से चैत्य के सिवाय के सभी कार्य का त्याग होता है, अब जहां पर चैत्य के सिवाय के सभी कार्य का त्याग होता है, और चैत्य के सिवाय के कार्य के लिये मन वचन काया का व्यापार बन्द किया है, तो वहां पर चैत्य में ही साधारण के लिये बोली बोलकर प्रयत्न कपने वाला निस्सिही की मर्यादा को तोड़ने वाला ही है।
SR No.540004
Book TitleAgam Jyot 1969 Varsh 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1969
Total Pages340
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy