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આગમન भगवान के समवसरण में भी अल्पऋद्धिवाला देव महर्द्धिक देव से पीछे बैठता है
और अल्पर्द्धि वाला देवता पीछे आवे तो महर्दिक को नमस्कार करता हुमा माता हैं, और महर्द्धिक जावे उस वक्त भी अल्पर्धिक देवता नमस्कार करते हैं। अब देखिये! खुद भाव तीर्थकर की भक्ति के वख्त भी अपनी स्वतन्त्र ऋद्धि की महत्ता भी अपेक्षा रखती है और वही अपेक्षा शास्त्रकार ने भी स्वीकार की है तो पंछे देवभक्ति में देवद्रव्य बढाने वाले का सम्बन्ध ही नहीं है यह कहना कैसे सच्चा होगा ? ___ऋद्धिमानों के लिये खुद आचार्यादिक को भी आवश्यक क्रिया का नियमित टाइम में से भी उपदेश के लिये वख्त निकालना शास्त्रकार फाठे हैं, इतना ही नहीं किन्तु भावस्तवरूप दीक्षा के बाद उपस्थापना के विषय में शास्त्रकार फर्माते हैं कि राजा और प्रधान सेठ और अमात्य की औरत साथ-साथ दीक्षित होवे तो प्रधान वगैरा बडी दीक्षा के लिये लायक हो जाने पर भी राजादिक के लिये रुकना, जब भावस्तव में यह द्रव्य का प्रभाव माना गया है तो पीछे उत्सर्पण से अधिक द्रव्य चैत्य में देने वाला प्रथम अधिकारी होवे उसमें क्या आश्चर्य है ? . कितनेक का कहना है कि देवद्रव्य की कल्पना छोड देवे
और साधारण की कल्पना करके भगवान की पूजा आदि की बोली करावे तो पीछे वह द्रव्य साधारण खाते में ले जावे तो क्या हर्ज है? ____ लेकिन यह कहना भी गलत है क्योंकि पेश्तर के आचार्य, मुनि
और भी संघ ने जो बोली देबद्रव्य के लिये ही शुरु की है, उस बोली को पलटा देना वह देवद्रव्य की आवक तोड देने का ही है, और देवद्रव्य की आवक तोडने वाले के लिये शास्त्रकार क्या 'फर्माते हैं 1 देखिये
मायाणं जो भंजइ, पडिवण्णं धणं न देइ देवस्स। णस्संतं समुविक्खइ, सोवि हु परिभमइ संसारे ॥११०॥