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વર્ષ ૪-૫, ૩
२२९ __ याने किसी २ जगह पर प्रतिक्रमणादि बोली के द्रव्य के सिवाय जिनभवनादि का निर्वाह की नहीं होता इससे निवारण करना अशक्य है। वाचक जन सोचेंगे के जब प्रतिक्रमणादि बोली का द्रव्य भी जिन भवन के लिये ही रखा गया है, तो पीछे वह द्रव्य देवद्रव्य या देवका साधारण द्रव्य ही होवे लेकिन श्रावक लड्डू खाने या साधु को मौज मजा उडाने के काम में यह द्रव्य कहां से आदे !
कितनेक का कहना है कि होरसूरिजी ने उछामणी करनी यह सुविहित आचरणा से नहीं है ऐसा कहा है, तो यह बात बिल्कुल गलत है, क्योंकि हेमचन्द्रसूरिजी महाराज सरीखे यावत् रत्नशेखरसूरिजी को वे श्रीमान् हौरसूरिजी कभी भी असुविहित नहीं गिने. असल में आज कल मारवाडादि देशों में सामायिक उच्चारण करने बाद घी बोल कर मादेश दिये जाते हैं, ऐसे रिवाज के लिये श्रीमान् होरसूरिजी ने फर्माया है और इससे ही वहां पर प्रतिक्रमणादि आदेश ऐसा कहा है और सुविहितों के लिये कहा है याने सामायिक लेने बाद बोली करनी, साधु को आदेश देना और वह घी की वृद्धि के हिसाब से देना यह सुविहितों को ठीक नहीं मालम होता। जहां पर विशेष आदेश विशिष्ट पुरुष के लिये कहा है। वहां पर सर्वे आदेश के लिये सभी पुरुष के लिये और सभी अवस्था के लिये लगा देना यह अक्लमन्दी कार्य नहीं है। ___ कितनेक का यह कहना है कि भगवान् की पूजा आरती विगैरा भक्ति रूप धर्म है, और उससे द्रव्य से सम्बन्ध रखना और द्रव्य वाले कहना यह भी शास्त्र से विरुद्ध है क्योंकि खुद जिनेश्वर महाराज के जन्माभिषेक आदि में अच्युतेन्द्रादि इन्द्रों के अनुक्रम से ही अभिषेक होते है तो क्या वे अमिक द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है ? ____वहां पर तो देवद्रव्य की वृद्धि का सवाल नहीं होने पर भी केवल अपनी मपनी अधिक ठकुराइ से पेश्तर अभिषेक करते है, इसी रीति से खुद