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________________ ૨૨૮ આગમત - इस स्थान पर सोचना चाहिये कि संघ के बहाने से ली हुई माला की भी उछामणी देवद्रव्य होवे और उपधान की जो ज्ञान के आराधन के लिये होते हैं उसमें भी बोला हुआ द्रव्य देवद्रव्य होवे तो पीछे खुद भगवान के आलम्बन से ही और भगवान की माता को आये हुए स्वप्न और भगवान के ही पालने का द्रव्य दूसरे खाते में कैसे जावे ? और ऐसा नहीं कहना चाहिए कि केवलज्ञानीपणा के बाद ही देवपना है, क्योंकि ऐसा कहने से तो तीर्थङ्कर महाराज के ज्ञान और निर्वाण दो ही कल्याणक होंगे, च्यवन, जन्म और दीक्षा ये तीनों कल्याणक उड जायेंगे, भगवान का दिया हुआ संवच्छरी दान आदि तो भगवान ने ही अपने कल्प से दिया है. इससे हरज नहीं करेगा. जैसे दीक्षा लेने वाला गुरु आदि से सब उपकरण लेवे, लेकिन दूसरा चोरने वाला तो नरकादिकगति का ही अधिकारी बने. क्या महावीर महाराज को बचपन में और छमस्थपने में उपसर्ग करने वाले जिनेश्वर की आशातना करने वाले नहीं हुए ? शास्त्रकार महाराज तो च्यवन से ही जिनपने का नमस्कारादि कार्य फरमाते हैं. - ___ हेमचन्द्र महाराज धर्मघोषसूरिजी, रत्नशेखरसूरिजी, मानविजयोपाध्याय वगैरह महानुभाव क्या जिनेश्वर महाराज की आज्ञा से विरुद्ध वर्तन वाले और कहने वाले थे [ ऐसा कहने की हिम्मत भव भीरू जीव तो कभी नहीं कर सकता है. कितने का कहना है कि प्रतिक्रमण की बोली साधारण खाते में ले जाने का विजयसेन सूरिजी ने फर्माया है, तो यह बात सच्ची है, लेकिन यह साधारण शब्द अभी चालु के देवद्रव्यलुम्पकोनें कल्पित किये साधारण खाते लिये नहीं है किन्तु मन्दिर के साधारण के लिये ही है. देखिये ! श्रीमान हीरसूरिजी क्या कहते हैं। "कापि कापि तदभावे जिनभवनादिनिर्वाहासम्भवेन निवारयितुमशक्यमिति"
SR No.540004
Book TitleAgam Jyot 1969 Varsh 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1969
Total Pages340
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size23 MB
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