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पुस्त: १- सु
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विषय साधन कहते हैं. इसका यही मतलब है कि श्रावक को चैत्यद्रव्य के संरक्षण में संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान नहीं है.
और यही बात जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी ने विषय का साधन धनादिक के संरक्षण में परायण चित्त को रौद्रध्यान का चौथा भेद कहकर दिखायी है, देखिये यह गाथा -
" साइविसय साहणघण संरक्खणपरायणमणिद्वं । "
याने शब्दादि विषय का साधन भूत धन हो और उसके रक्षण में जिसका चित्त तत्पर होवे उसको ही रौद्रध्यान कहा जाता है. ये ऊपर कहे हुए पाठों से देवद्रव्य रक्षण का फल और देवद्रव्य रक्षण में रौद्रध्यान का अभाव सिद्ध हुआ, लेकिन रक्षण को इतनी परम कोटि से जरूरीयात हैं कि जिससे निशीथ भाष्यकार महाराज को देवद्रव्य के बचाव करने का प्रसङ्ग शृङ्गनादित कार्य में गिनाना पडा है और इसी से ही श्रीमान् निशीथ भाष्यकार महाराज और श्रीमान् बृहत्कल्प भाष्यकार महाराज चैत्यद्रव्य के रक्षण के लिये साधु को 'दगतीर' में आतापना करने की कहते हैं, याने उस आतापना की रीति से साधु को भी देवद्रव्य का रक्षण करना ही चाहिये, देखिये, भाष्य तथा चूर्णिकार महाराज आतापना की यातना के लिये फर्माते हैं कि जो साधु आतापना करे वह धृति और संहनन से दृढ़ होना चाहिये, और मनुष्य तिर्यञ्च के अवतरणादि मार्ग को छोड़कर साधु को साथ में रखकर राजा जहां पर गोख में बैठा हुआ आतापना देख सके या राजा का जाना जहां पर होता हो वहां कार्य (चैत्य उसके द्रव्य का नाश बचाने के लिये ) साधु आतापना करे ।
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टीकाकार भी यही कह रहे हैं कि चत्य का विनाश या चैत्य द्रव्य का विनाश आदि जो कार्य राजा के आधीन हो उसके लिये राजा को सन्मार्ग में लाने के लिये पानी के नजदीक भी साधु आतापना करे, लेकिन वह पानी का तीर राजा के अवलोकन पथ में या निर्गमन पथ में होना
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