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________________ ૭૬ આગમજ્યાત उपाय से चारित्र वाले या अवारित्र वाले संघ को लगना ही चाहिये । देखिये वे गाथाएं 66 चोes चेइयाणं खेत्तहिरण्णाई गामगावाई | लग्गतस्स हु जइणो तिगरणसुद्धी कहं णु भवे ? ॥ १ ॥ roup एत्थ विभासा जो एयाई सयं विमग्गेज्जा । हु तस्स होइ सुद्धी अह कोई हरेज्ज एयाई ||२|| सव्वत्थामेण तर्हि संघेणं होइ लग्गियन्त्रं तु । सचरितचरित्तीर्ण एवं सव्वेसि सामण्णं ॥ ३ ॥ " “ शिष्य प्रश्न करता है कि चैत्य के लिये क्षेत्र हिरण्यादि और ग्राम गौ आदि में लगने वाले मुनिराज को त्रिकरण शुद्धि कैसे होगी ॥ १ ॥ १ शास्त्रकार फर्माते हैं कि जो ये क्षेत्रादि अपने मांगे तो मुनिराज को शुद्धि नहीं रहती, लेकिन कोई उसको हरण करे तो सर्व संघ को सर्व प्रयत्न से बचाव करना चाहिये और यह बचाने का प्रयत्न चारित्र वाले और चारित्र बिना के सर्व के लिये सरखा है । जिस तरह से साधु के लिये रक्षा करने में जरूरीपना दिखा कर परिग्रह दोष से महाव्रत बाधा नहीं है ऐसा भाष्यकार महाराज ने दिखाया उसी तरह से श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी आवश्यक वृत्ति में भी कहते हैं कि धन धान्यादिक जो विषय के साधन हैं उसके रक्षण में गृहस्थ को रौद्र ध्यान लगता है, लेकिन चैत्य द्रव्य का रक्षण और वृद्धि रौद्र ध्यान का कारण कहा है, किन्तु प्रशस्त ध्यान है, देखिये वह पाठ " इह च शब्दादि विषय साधनं धनविशेषणं किल श्रावकस्य चैत्यधनसंरक्षणेन रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति " याने रौद्रध्यान के चौथे पाये का लक्षण कहते श्री जिनभद्रक्षमाश्रमणजी 'सद्दाइ विसय साधण धण' ऐसा कहकर धन का विशेषण शब्दादि
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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