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________________ ७८ આગમત चाहिये यावत् राजा खुश होकर महाराज ! आतापना क्यों करते हो आपका जो कार्य इष्ट होवे या भोग चाहो तो मैं दउं, तब साधु कहे कि भोगादिक से मेरे कार्य नहीं है, लेकिन यह चैत्य और उसके द्रव्य का नाश रोकना वगैरा संध का कार्य है वह कीजिये ।। वृत्तिकार भी यही कहते हैं । देखिये भाष्य और वृत्ति का पाठ आलोयण णिग्गमणे ससहाओ दगसमीव आयावे । उभयजढो भोगजढे कज्जे आउटपुच्छणया ॥२४२९॥ चैत्यविनाश तद्रव्य विनाशादि विषयं किमपि कार्य राजाधीनं, ततो राज्ञ आवर्जनार्थ दकसमीपे आतापयेत् , तश्च दकतीरं राज्ञोऽवलोकनपथे, निर्गमनपथे वा भवेत् , तत्र चातापयन् ससहायो, नैकाकी, उभयदृढो धृत्या संहननेन च बलवान् , भोगजदेत्ति ग्रामेयकारण्यकानां तिर्यङ् मनुष्याणामवतारणमार्ग मनुजानां च स्नानादि भोगस्थानं वर्जयित्वाऽपरिभोग्ये प्रदेशे आतापयति, ततः स राजा तं महातपोयुक्तं आतापयन्तं दृष्टवा आवृत्तः सन् कार्य पृच्छेत् भगवन् ! आज्ञापय करोम्यहं युष्मदभिप्रेतं कार्य, भोगान् वा भगवतां प्रयच्छामि, मुनिराह महाराज ! न मे कार्य भोगादिभिर्वरः, इदं सङ्घकार्य चैत्या-विनाशनिवर्त्तनादिकं विदधातु महाराज इति। ___ ऊपर कहा इतना ही नहीं लेकिन आचार्य के दूसरे की आज्ञा से साधु को कार्य करने के प्रसङ्ग में भी शास्त्रकारों ने चैत्य द्रव्य की रक्षा के लिये ही आचार्य को बाहर जाने का दिखाया है। सोचिये ! जिन आचार्य महाराज को गोचरी जाने की मनाई है बाहर स्थण्डिल जाने की छुट नहीं है. उन आचार्य महाराज को भी दूसरे कारणों के माफिक चैत्य द्रव्य की रक्षा के कारण से बाहर जाने का होता है. जिस देवद्रव्य के लिये ऊपर के लेख में भक्षण का दोष दिखाया है और रक्षण का फायदा भी दिखाया है, वैसे देवद्रव्य के भक्षण से बचने की
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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