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________________ पुस्त। 3पयोगि धनधन्यादि काष्ठपाषाणादि च तथा साधारणं च द्रव्यं तथा विधव्यसनप्राप्तौ शेषद्रव्यान्तराभावे जिनभवन-जिनबिम्ब-चतुर्विध श्रमणसङ्घ-जिनागमलेखनादिपु धर्मकृत्येषु सीदत्सु सत्सु यदुपष्टम्भकत्वमानीयते, तत्र यो ब्रह्मति विनाशयति, कीदृशः सन्नित्याह, मोहितमतिको लोभातिरेकेण मोहमानीता मोहिता मतिरस्येति समासः धर्म वा जिनप्रणीतं स न जानाति । अनेन च तस्य मिथ्यादृष्टित्वमुक्तम् । अथवा, जाननपि किञ्चिद् धर्म बद्धायुष्को नरकादिदुर्गतौ पूर्व चैत्यद्रव्यादिचिन्ताकालात् प्राग इति" याने मूलगाथा में श्री हरिभद्र सूरिजी फर्माते हैं कि जिसकी बुद्धि मोह के आधीन हो गई है या जो धर्म को नहीं जानता है या पेश्तर (दुर्गति का) आयुष्य बांध चुका है वैसा मनुष्य ही चैत्य द्रव्य या साधारण द्रव्य का नाश करे. टीकाकार महाराज भो यही फर्माते हैं कि चैत्य भवन के लिये उपयोगी धन धान्य विगैरहः हो या काष्ठ पाषाण वगैरः हो उसका या अगर तकलीफ के वक्त दूसरा द्रव्य न होने से जिन भवन जिनेश्वर की मूर्ति चतुर्विध संघ या जैन शास्त्र का लिखाना वगैरः धर्म कार्य नाश पाते हुए बचाने के लिये [ ऋद्धिमान् श्रावकों ने अपनी तरफ से इकट्ठा किया हुआ] साधारण द्रव्य का जो नाश करता है, वह अनंतानुबंधी लोभ से घिरी हुई बुद्धि वाला है, या धर्म को नहीं जानता है, अगर तो चैत्यद्रव्यादिका प्रसंग करने से पेश्तर नरकादिक का आयुष्य बांधा हुआ हैं. ___ उपर्युक्त सटीक गाथा से वाचकों को मालूम हो गया होगा कि देवद्रव्य का भक्षण, नाश या नाशकी उपेक्षा करनी साधु या श्रावक दोनों के लिये अनंत संसार देने वाली है । ऐसा ख्याल कभी भी नहीं करना कि साधुवर्गही अपने वर्ग के लिये या श्रावक वर्ग के लिये जोखमदार है और श्रावक वर्ग अपने अपने श्रावक वर्ग के लिये ही जोखमदार है, क्योंकि दो तरह का नाश जो ऊपर गाथाकार ने कहा है, उन दोनों ही तरह के नाश को दिखाते हुए खुद ग्रन्थकार ही खुलासा करते हैं देखिये !
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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