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________________ આગમત ___“जोग्गं अतीयभावं मूलत्तरभावओ अहव कट्ठ। जाणाहि दुविह भेयं सपक्खपरपक्खमाइं च ॥४१६।। जोग्गं चैत्यगृहनिष्पत्तौ समुचितमेकं, द्वितीयं तु अतीतभावं चैत्यगृहनिष्पत्तिमपेक्ष्य समुत्तीर्ण योग्यतापर्यायं लग्नोत्पाटितमित्यर्थः। मूलोत्तरभावतो वा काष्ठमुपलक्षणत्वात् , उपलेष्टकादिकमपि ग्राह्यं, जानाहि द्विविधभेदं विनाशनीयम् । इह मूलभावापन्नं स्तम्भकुम्भिकापट्टादि योग्यं काष्टदलम् , उत्तरभावापन्नं तु पीठप्रभृत्युपर्याच्छादकतया प्रवृत्तम् । इत्थं विनाशनीयद्वैविध्यात् विनाशनं द्विविधमुक्तं । संप्रति विनाशकभेदात्तदाह-स्वपक्षपरपक्षादि वा । स्वपक्षः साधुश्राविकादिरूपः परपक्षस्तु मिथ्यादृष्टिलक्षणो, यश्चैत्यद्रव्यविनाशकः, आदिशब्दाद मिथ्यादृष्टिभेदा एके गृहस्थाः पाखण्डिनश्च चैत्यद्रव्य विनाशका गृह्यन्ते, ततोऽयमभिप्रायःयोग्यातीतभेदाद् स्वपक्षपरपक्षगतयोहस्थ पाखण्डिरूपयोर्वा विनाशकयोर्भेदात् प्रागुक्तं तद्रव्यविनाशनं द्विविधभेदमिति ।। मूलकार श्री हरिभद्रसूरिजी फर्माते हैं कि चाहे उपयोग में आवे ऐसा द्रव्य हो चाहे निरुपयोगी ही हो, या मूलभूत द्रव्य हो चाहे उत्तरभूत द्रव्य हो, चाहे काष्ठ ही हो लेकिन इसका नाश स्वपक्ष परपक्ष मिथ्यादृष्टि गृहस्थ या पाखण्डी करे तो उसकी उपेक्षा करने वाले साधु भी अनन्त संसारी होता है, टीकाकार भी बात यही करते है. उपर्युक्त पाठ से यह साफ साफ मालूम होता है कि साधु श्रावक या मिथ्यादृष्टि किसी से भी देवद्रव्य का नाश होता हो उसको उपेक्षा करनी धर्मिष्ट को लाजिम नहीं है, इससे आचार्य महाराज हरिभद्र सूरिजी सम्बोधप्रकरण में भी फर्माते हैं, कि ___“जिणपवयणबुदिडकर, पभावगं णाणदंसणगुणाणं जिणधण मुविक्खमाणो दुल्लहवोहिं कुणई जीवो ॥९९।। जिण० भक्खंतो जिणदव्वं अणंतसंसारिओ भणिओ ॥१००॥ जिण० दोहंतो जिणदव्यं
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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