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________________ ७० આગમત उपेक्षक याने लापरवाही करने वाला श्रावक भी अनन्त संसारी होता है तथा साधु महात्मा जो कि सर्व सावध व्यापार से निवृत्त हुए हैं, वे भी वैसे देवव्य के नाश की उपेक्षा करे तो अनन्त संसारी कहे हैं। इसी माया की व्याख्या में टीकाकार महाराज मुनिचन्द्रसूरि भी यहो बात स्पष्ट रीति से फर्माते हैं देखिये वह पाठ___ "इह चैत्यद्रव्यं क्षेत्रहिरण्यग्रामधनवास्त्वादिरूपं, तत्तत्समयवशेन चैत्योपयोगितासम्पन्न, तस्य विनाशे चिन्तानियुक्तैः पुरुषैः सम्यगप्रतिजागर्यमाणस्य स्वत एव परिभ्रंशे सम्पद्यमाने, तथा तद्र्व्यविनाशने चैत्यद्रव्यविलुण्टने परैः क्रियमाणे, कीदृशे इत्याह द्विविधभेदे वक्ष्यमाण-विनाशनीयद्विविधवस्तुविषयत्त्वेन द्विप्रकारे, साधुः सर्वसावधव्यापारपराङ्मुखोऽपि यतिरुपेक्षमाणो माध्यस्थ्यमवलम्बमानोऽनन्तसंसारिकोऽपरिमांणभवभ्रमणो भवति, सर्वज्ञाज्ञोल्लङ्घनात्" __इसका यह भावार्थ है कि “ मन्दिर या देव के लिये क्षेत्र, सोना, गांव, बगीचा या मकान आदि चीज उस समय के संयोग से चैत्य उपयोगी मिली. उसका अच्छी तरह से बन्दोबस्त नहीं करने से नाश होवे या चैत्य द्रय को दूसरा अस्त व्यस्त कर देवे तो सर्व सावध के काम से हटगया हुआ ऐसा साधु भी इन दोनों तरह के नाश में मध्यस्थपना करे तब भी अनन्त संसारको रुलने वाला होता है । क्योंकि साधु ने चारित्र का मूल जो सम्यक्त्व और उसको जड जो सर्वज्ञ की आज्ञा है, उसका उल्लङ्घन कर दिया, याने आज्ञा से निरपेक्ष हो गया और इसीसे ऐसे नाश करने वाले का सम्यक्त्व नहीं रहता है याने मिथ्यात्व पाया हुआ हैं, धर्म को वह नहीं जानता है या तो नरकादि दुर्गति में उसने पेश्तर आयुष्य बान्ध लिया है, क्योंकि उपर्युक्त ग्रन्थ और उसकी टीका में साफ २ फर्माया है कि__चेइय दव्वं साहारणं च जो दुहति मोहिमतीओ। धम्म व सो ण याणति अहवा बद्धाउओ पुब्बिं ॥४१४॥ चैत्यद्रव्यं चैत्यभवनो
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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