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________________ પુસ્તક ૪–વ્યું व्यतिरेकेण नियुक्तीनामभावेनोपपातिकाधुपाङ्गानां च चूर्यभावेनानार्षत्वप्रसङ्गात् (पंचा० ५० ३४ ). श्रीवंदित्तु ० सूत्र पर श्री जिनदेव-विजयसिंहसरि कृत भाष्यचूर्णि है फिर उसको सूत्र कैसे नहीं मानना ? क्या आनन्दादि श्रावक प्रतिक्रमण नहीं करते थे ? कहोंगे कि उपासकदशांग और आवश्यकनियुक्तिके पाठसे वे प्रतिक्रमण करते थे तो यह कहना व्यर्थ है. __ क्यों कि वहां एक भी स्थान में अतिचार का प्रतिक्रमण याने मिच्छामि दुक्कडं वाला पाठही नहीं है, और ज्ञानाचारादि आचारों का तो नाम निशान भी नहीं हैं, इससे अतिचार की 'गाणंमि दसणंमि' आदि आठ गाथा और वंदित्तु ० सूत्र असल से ही है ऐसा मानना पडेगा. ऐसे ही इच्छामिठामि में असावगपाउग्गो नाणे दंसणे चरित्ताचरित्ते पंचण्हमणुव्वयाणं तिहं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं बारसविहस्स सावगधम्मस्स' आदि पाठ भी असल का ही मानना होगा. अनुयोगद्वारमें श्रावकको दोनों समय प्रतिक्रमण करने का फरमाया है. सूत्रकृतांग में उदकश्रावक ने अप्रतिक्रमणधर्म को छोड के सप्रतिक्रमणधर्म माना है, आनंदश्रावकको श्रीगौतमस्वामीजी ने पडिक्कमण करने का फरमाया हैं, इससे भी श्रावक का अलग प्रतिक्रमण जरूर मानना होगा. और इसीसे वंदित्तु० भी पेश्तर श्रीगणधरका किया हुआ मानना पडेगा. १३ प्रश्न-वंदित्तु की गाथा ५० है या कम है, ५० है तो पीछे की गाथा में 'सम्मत्तस्स व सुद्धि' ऐसा पद 'सम्भदिट्ठी देवा' की जगह पर कहते हैं, वो क्या उचित है ?
SR No.540002
Book TitleAgam Jyot 1967 Varsh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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